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भक्ति आंदोलन के स्वप्नलोकों का समसामयिक विश्लेषण : बेगमपुरा व रामराज्य के विशेष संदर्भ में

डॉ.लक्ष्मण यादव के फेसबुक वॉल

भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास का एक जीवंत सांस्कृतिक पड़ाव है। भारतीयता की अवधारणा से जुड़ी सभी कहानियाँ बिना भक्ति आंदोलन से होकर गुज़रे अधूरेपन व आधारहीनता की शिकार मालूम पड़ती हैं। भक्ति आंदोलन की यह जीवंतता अपने कालजीवी प्रतिरोध के साथ कालजयी विकल्प पेश करने में समाहित है। भक्ति आंदोलन अपने प्रतिरोध व विकल्पों के साथ भारतीयता की एक अलहदा संकल्पना लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है। प्रतिरोध सच कहने का व विकल्प स्वप्नलोकों का। भक्ति आंदोलन के बीच रचे गए स्वप्नलोक भारतीयता की भक्तिकालीन संकल्पना के केंद्र में हैं। वे स्वप्नलोक, जिनमें साहित्यिक सृजनशीलता के साथ दार्शनिक सामाजिकता के पुट भी समाहित रहे। इन स्वप्नलोकों के केंद्र में एक ख़ास क़िस्म की न्यायप्रियता व मनुष्यता परिभाषित हुई, जिसकी अगुआई कबीर का ‘अमरदेसवा’ करता है। स्वप्नलोकों के दायरे को एक वृहत्तर आयाम देकर रैदास ने ‘बेगमपुरा’ का स्वप्न देखा। भक्ति आंदोलन के उत्तर चरण में एक और स्वप्न देखा गया, ‘रामराज्य’ का स्वप्न। प्रतीकात्मक रूप कहें तो यह अतिश्योक्ति न होगी कि भक्ति आंदोलन ‘बेगमपुरा’ से ‘रामराज्य’ के बीच जारी सांस्कृतिक यात्रा का एक ऐतिहासिक मुक़ाम है। हर दौर की अपनी दृष्टि भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक संरचना के बदलते स्वरूपों के बीच इस यात्रा का आलोचनात्मक विश्लेषण की कोशिश करती रही है। भक्ति आंदोलन के स्वप्नलोकों का यह विश्लेषण उसी निरंतरता के समसामयिक आलोचनात्मक पाठ की एक कोशिश है।

हिंदी आलोचना ने ‘भक्ति आंदोलन’ पदबंध में से अपने अपने परम्परा व पूर्वाग्रह के प्रभाव में ‘भक्ति’ पर आवश्यकता से अधिक ज़ोर दिया, जबकि ‘आंदोलन’ को बदलते हुए समसामयिक संदर्भों के बीच समग्रता में देखे जाने का अवकाश कुछ अधिक ही छोड़ा। मसलन हिंदी आलोचना ने भक्ति आंदोलन के उद्भव के पीछे भी अलग अलग आलोचनात्मक धारणाओं पर आधारित कहानियाँ रचीं। ‘बिजली की चमक जैसी अचानकता’ से लेकर ‘इस्लाम के आने की प्रतिक्रिया’ या ‘भारतीय चिंता धारा के स्वाभाविक विकास’ से लेकर ‘आर्थिक सशक्तिकरण’ व ‘शास्त्र के विरुद्ध लोक का विद्रोह’ जैसी अवधारणात्मक कहानियों के बीच मूलतः भक्ति आंदोलन देखा जाता रहा। वहीं भक्ति के आंदोलनात्मक स्वरूप को केवल अखिल भारतीय कहकर काम चलाया गया। रामविलास शर्मा जैसे कुछ आलोचकों ने भारत के लिए पहला पुनर्जागरण कहकर कोशिश ज़रूर की, मगर भकलत के आंदोलन वाले पक्ष में से वैचारिक व सांस्कृतिक दर्शन को निरंतरता में कम देखा। इन आलोचनाओं के बीच बहुत सी परतें उघड़ती, तो बहुत सी अदृश्य परतें पड़ती गईं। स्वप्नलोकों के विश्लेषण का अवकाश 21वीं सदी के सवालों से सीधे जुड़ता है। वैचारिक व सांस्कृतिक तौर पर सजग हर दौर की पीढ़ी अपने अतीत को तलाशती है। सृजन व ध्वंस दोनों के लिए यह आवश्यक आवश्यकता है। भक्ति आंदोलन के स्वप्नलोकों में इसके गहरे निहितार्थ हैं। साहित्यिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के साथ ही इनका समसामयिक विश्लेषण एक बनते हुए राष्ट्र भारत के लिए कुछ बेहद बुनियादी दिशा समेटे हुए है। इसी परिप्रेक्ष्य में दो स्वप्नलोकों का तुलनात्मक अध्ययन बेहद दिलचस्प है, ‘बेगमपुरा’ और ‘रामराज्य’।

भक्ति कालीन स्वप्नलोकों में से बेगमपुरा व रामराज्य की तुलना हमारे दौर के सवालों के सांस्कृतिक जवाब के लिहाज से बेहद मौजूं है। ये दो स्वप्नलोक दो वैचारिक, सांस्कृतिक व वैकल्पिक ज़मीन पर खड़े हैं। जिसके चलते दोनों हमारी पीढ़ी के लिए प्रासंगिक हैं, सृजन के लिहाज़ से तो ध्वंस के लिहाज़ से भी। प्रेमकुमार मणि अपने लेख में लिखते हैं ‘रैदास और कबीर दोनों ने वर्णाश्रमवाद के विकल्प में एक नए समाज की प्रस्तावना और खाका पेश किया था. कबीर का लोक ‘अमरदेस’ था और रैदास का ‘बेगमपुरा’. बेगमपुरा का अर्थ उल्लास की नगरी है. जाति -पाँति विहीन, वेद -पुराण के पाखंड से रहित कामगारों की यह दुनिया ऐसी है जिसमे बैठ कर खानेवाले गपोड़ों के लिए कोई जगह नहीं है. कार्ल मार्क्स का कम्युनिस्ट समाज भी यही तो है. लेकिन कुछ ही समय बाद तुलसीदास ने बेगमपुरा और अमरदेस को ख़ारिज करते हुए ‘गौ-द्विज हितकारी’ रामराज की अवधारणा रखी. प्रेमकुमार मणि ने इन दोनों स्वप्नलोकों की तुलना करते हुए उन बहसों को नए सिरे से खड़ा करने की कोशिश की, जिन्हें हिंदी जगत के अधिकांश नामवर आलोचकों ने पर्याप्त तवज्जो न दी। ये दो वैचारिक परमपराओं के प्रतीक स्वप्नलोक है, दो परस्पर प्रतिपक्षी समाज के बीच से उभरती हुई सामाजिक सांस्कृतिक परमपराओं की उआपज हैं। इसीलिए दोनों दो अलग अलग वैचारिक छोर पर खड़ी नज़र आती हैं।

बेगमपुरा व रामराज्य को कई स्तरों पर साथ रखकर देखने की ज़रूरत है, मसलन इन दोनों स्वप्नलोकों की आदर्शात्मक संकल्पना के केंद्र में कौन सा सामाज है? इन दोनों ने जैसी दुनिया का ख़्वाब देखा, उसमें उत्पादन सम्बन्धों, सामाजिक संरचनाओं व सत्ता के स्वरूप की कैसी कैसी छवियाँ हैं? आज हम उनमें से किसे अपने आज व कल के लिहाज़ से सबसे क़रीब पाते हैं? इन सवालों के बरक्स ही हम एक सार्थक व औचित्यपूर्ण निष्कर्षों को तलाश सकते हैं। बेगमपुरा व रामराज्य की तुलना करते हुए डॉ. सिद्धार्थ अपने लेख में लिखते हैं कि ‘डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ में भारत के इतिहास को क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों के इतिहास के रूप में चिन्हित किया है। वे बहुजन-श्रमण परंपरा को क्रांतिकारी परंपरा के रूप में रेखांकित करते हैं, जिसके केंद्र में बौद्ध परंपरा रही है। वे वैदिक परंपरा को प्रतिक्रांतिकारी परंपरा के तौर पर चिन्हित करते हैं। वे सनातन, ब्राह्मणवादी और हिंदू परंपरा को बदलते समय के साथ वैदिक परंपरा के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द के रूप में देखते हैं, हालांकि सबका मुख्य तत्व एक है- वर्णाश्रम व्यवस्था का गुणगान और ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता का दावा। इसके विपरीत बहुजन-श्रमण पंरपरा है, जो वर्ण-जाति व्यवस्था को खारिज करती रही है और ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता के दावे को पूरी तरह नकारती रही है और सभी इंसान को समान दर्जा देने की हिमायती रही है। वैदिक और बहुजन-श्रमण परंपरा के बीच, प्राचीन काल में शुरू हुआ संघर्ष किसी न किसी रूप में आज भी जारी रहा। हिंदी पट्टी में मध्यकाल में यह संघर्ष बहुजन संत कवियों की निर्गुण धारा और द्विज भक्त कवियों की सगुण धारा के रूप में सामने आया। हिंदी भाषा-भाषी समाज में बहुजन निर्गुण संत कवियों की धारा के प्रतिनिधि कवि रैदास और कबीर हैं, तो सगुण भक्त कवियों के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास और सूरदास हैं, विशेष तौर पर रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास।

रैदास के बेगमपुरा और तुलसी के रामराज्य में तुलनात्मक अध्ययन के लिए सबसे अहम सवाल है सामाजिक सम्बन्धों का सांस्कृतिक स्वरूप। भारतीय संदर्भ में सामाजिक सम्बन्धों का सवाल ऐतिहासिक तौर पर जाति व वर्ण व्यवस्था का पर्याय रहा है। इसलिए सबसे पहले हम इन दोनों स्वप्नलोकों की सांस्कृतिक दृष्टियों में जाति व वर्ण व्यवस्था के चित्रण की स्थिति देखते हैं। रैदास लिखते हैं-
‘रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच,
नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच।’

रैदास के यहाँ जन्म से कोई नीच यानी अधम या छोटा नहीं है। रैदास के सामाजिक दर्शन में जाति व्यवस्था का नकार मौजूद है। यही विचार रैदास के स्वप्नलोक में एक विचार के बतौर ज़ाहिर भी हुआ है। रैदास ने जाति को मनुष्यता के विनाश की वजह बताते हुए लिखा है-
‘जात-पात के फेर मह, उरझि रहे सब लोग,
मानुषता को खात है, रैदास जात का रोग।’

रैदास के यहाँ जाति का सवाल किसी भी सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था व सत्ता के सुचारु रूप से संचालित की जाने की आवश्यक मजबूरी के उथले लिबास में स्वीकार नहिं किया गया। रैदास जाति और जाति के आधार पर स्थापित किए गए सामाजिक व सांस्कृतिक मानकों के नकार से जुड़ता है। ऐतिहासिक तौर पर जाति के आधार पर कर्म विभाजन ही नहीं, अधिकार विभाजन और जीवन की गरिमा व सम्मान विभाजन भी आरोपित किया गया। भक्ति काल के मध्यकालीन दौर में भी रैदास अपने स्वप्नलोक में जाति के आधार पर की गाए इन विभाजनों को नकारते हुए लिखा-
‘रैदास बाभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन,
पूजिए चरन चंडाल के जो हो गुन परवीन।’

जबकि प्रसंगवश उल्लेख समीचीन है कि रामराज्य के स्वप्न द्रष्टा तुलसी ने रामचरित मानस में बिना किसी लागलपेट के साफ़ तौर पर लिखा है कि-
‘पूजहिं विप्र सकल गुणहीना,
सूद्र न पूजहिं ज्ञान प्रवीना।’

यह दो कवियों की कविता में अभिव्यक्त साहित्यिक अंतर मात्र नहीं हैं, बल्कि इन दो कवियों की समाज दृष्टि, बोध व पक्षधरता की भिन्नता है। तुलसीदास ने जाति को एक स्थिर सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था व उत्पादन सम्बन्धों की ठहरी हुई संरचना के बतौर स्वीकार किया, इसीलिए तुलसी जाति के भीतर आ रहे बदलावों से क्षुब्ध दिखाते हैं। तुलसी लिखते हैं-
‘जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥’
‘ते बिप्रन्ह सन आपको पुजावही, उभय लोक निज हाथ नसावही।’

तुलसीदास ने रामचरित मानस के कालिकाल वर्णन में सामाजिक सांस्कृतिक संरचनाओं के टूटने को बेहद आपत्तिजनक मानते हैं, जबकि भक्ति आंदोलन के शुरुआती विमर्श में उन सभी विभाजनकारी संरचनों के ध्वंस का स्वप्न देखा गया। रैदास विषमता के ध्वंस के कवि हैं, तो तुलसी विषमता के ध्वंस से उपजे शोक कर कवि नज़र आते हैं। तुलसी जाति के ध्वंस पर चिंतित होकर लिखते हैं-
‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर आंखि देखावहिं डांटि॥’
‘सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥’
‘अधम जाति में विद्या पाए। भयहु यथा अहि दूध पिलाए॥’

जबकि रैदास के स्वप्न व विचार दोनों में जाति व वर्ण व्यवस्था का समूल नाश समाहित है। रैदास जाति व्यवस्था से उपजे विभाजन व विषमता को मनुष्यता की विभाजक संरचना मानकर उसे सांस्थानिक व व्यावरिक दोनों स्तरों पर ख़ारिज करते हुए लिखते हैं-
‘जात -जात में जात है जस केलन कै पात,
रैदास न मानुख जुड़ सकै , जब तक जात न जात।’

तुलसीदास अपने रामराज्य के स्वप्नलोक में जिस आदर्श समाज की रचना तुलसीदास करना चाहते हैं, वह स्वप्नलोक वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था के विषमतावादी व विभाजनकारी प्रारूप के साथ ही मौजूद है। जो अपने पुश्तैनी पेशों को छोड़कर अपनी क़ाबिलियत के चलते कोई और पेशा या काम चुनता है, उसे तुलसी नापसंद करते हुए बेहद आपत्तिजनक मानते हैं। तुलसी रामचरित मानस में एकाधिक स्थानों पर इस बात से आहत नज़र आते हैं कि जाति व्यवस्था का सांस्थानिक रूप दरकने लगा है। इसीलिए तुलसी उसे अपने आदर्श स्वप्नलोक में उसे पुनर्स्थापित करते हुए नज़र आते हैं। तुलसी लिखते हैं-
‘वर्णाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखद नहिं भय शोक न रोग।।’
‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी, तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥’

तुलसी के स्वप्नलोक रामराज्य में सब कुछ बहुत अच्छा होने का स्वप्न है। सब कुछ बहुत व्यवस्थित व खुशहाल होने का दावा है। मगर यह सब तभी सम्भव है, जब वह वेद, पुराण, वर्ण व जाति व्यवस्था के अनुकूल हो। इसीलिए तुलसी के स्वप्नलोक रामराज्य में विप्र पूजनीय रहेगा। जैसा भी हो। वे लिखते हैं-
‘सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।’

ध्यातव्य है कि यह कहना न्यायप्रिय न होगा कि तुलसी जाति व वर्ण को लेकर अंतिम काल तक यही सोचते थे। कवितावली के तुलसी जाति व्यवस्था को लेकर अपने नज़रिए में बदलाव के साथ सामने आते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि अपने जीवन के उत्तर काल में तुलसी खुद जाति व्यवस्था की विषमता को समझते नज़र आ रहे हैं। जब वे लिखते हैं-
‘धूत कहो अवधूत कहो, रजपूत कहो, जोलहा कहो कोऊ।’
‘मेरे जाति-पांति न चाहो काहू के जाति-पांति।’

रैदास के स्वप्नलोक में जाति का विनाश समाहित है। इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार यह भी है कि रैदास के मन में जाति के नाम पर आरोपित सामाजिक स्तरीकरण को नकारते हुए एक आत्मसम्मान बोध मुखर हुआ है। रैदास का यह आत्मविश्वास ‘कहै रैदास खलास चमारा”, “प्रेम भगति कै कारनै, कहु रविदास चमार’ है। इसका ज़िक्र रामचंद्र शुक्ल जाति के लिए बतौर सूचना तो करते हैं, मगर इसके पीछे के मनोविज्ञान व समाजशास्त्र का विश्लेषण करना ज़रूरी नहीं समझते।4 एक बेहद आत्मविश्वास पूर्ण व स्वाभिमान से लबरेज़ पद में मिलता है, जब रैदास ब्राह्मणवादी, जातिवादी सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था को चुनौती देते हुए लिखते हैं-
‘जाके कुटुंब सब ढोर ढोवत फिरहि अजहुं बनारसी आसपासा।
आचार सहित बिप्र करहिं दंड उत तिन तने रविदास दासानुदासा।’

यह रैदास के बेगमपुरा का एक बुनियादी दर्शन है। इस ज़मीन पर रामराज्य की आदर्श संकल्पना बेहद कमजोर नज़र आती है। जाति के सवाल को अगर धार्मिक कर्मकांड व साम्प्रदायिक ज़मीन तक ले चलें, तो इन दोनों स्वप्नलोकों में एक बुनियादी अंतर नज़र आता है। रैदास के वे पद बेहद अहम हैं, जिसकी अगुआई ‘मन चंगा ताऊ कठौती में गंगा’करता है। मगर रैदास हिंदू मुस्लिम के बीच के नटर को मिटाते हुए कबीर जैसे निर्गुण कवियों के दर्शन को मज़बूत करते हुए लिखते हैं-
मस्जिद सो कुछ घिन नहीं मन्दिर सो नहीं प्यार,
दोउ अल्ला हरि नहीं कह रविदास उचार.’
‘मुसलमान से दोस्ती, हिन्दुवन से कर प्रीत,
रविदास ज्योति सभ हरि की, सभ हैं अपने मीत।’
‘हिन्दू तुरूक महि नाहि कछु भेदा दुई आयो इक द्वार,
प्राण पिण्ड लौह मास एकहि रविदास विचार।’

रैदास के मुताबिक़ इन दोनों धर्मों व मान्यताओं के भीतर एक ही क़िस्म की डिक्काटें और एक ही क़िस्म की विभाजनकारी संरचनाएँ मौजूद हैं। इसीलिए रैदास अपने स्वप्नलोक में एक ऐसी दुनिया रचना चाहते हैं, जिसमें आज के इक्कीसवीं सदी के साम्प्रदायिकता जैसी उभरती जा रही ऐतिहासिक चुनौती का जवाब भी समाहित नज़र आता है। आप रैदास के लिखे के आधार पर साम्प्रदायिक दंगा कभी नहिं करवा सकते। ये उनके दर्शन की व्यापकता व निष्पक्षता है। रैदास लिखते हैं-
रैदास कंगन और कनक महिं, जिमि अंतर कछु नाहिं,
तैसउ ही अंतर नहीं, हिन्दुअन, तुरकन मांहि।’
‘मन्दिर मस्जिद एक है, इन मंह अंतर नाहिं
रैदास राम रहमान का, झगड़ऊ कोऊ नाहिं।’
‘हिंदू पूजे देहरा, मुसलमान मसीत
रविदास पूजे इक नाम को जिन्ह निरंतर प्रीति।’

रैदास समते निर्गुण पंथ के ज्ञानमार्गी संतों के यहाँ परजीवी धार्मिकता नहीं, श्रमजीवी आध्यात्मिकता के संकेत मिलते हैं। निर्गुण पंथ के संत भक्त कवि श्रम, परिवार व सामाजिक सम्बन्धों के बीच एक व्यावहारिकता को चुनते हैं। रैदास ने श्रम के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने आदर्श स्वप्न लोक में श्रमजीवियों के लिए एक बेहतर व न्यायप्रिय दुनिया का ख़्वाब देखा है। श्रम की अहमियत समझे बिना किसी भी क़िस्म का स्वप्नलोक रचा ही नहीं जा सकता और न ही वह आधुनिक दौर में प्रासंगिक हो सकता है। रैदास इस दूरदृष्टि व सूक्षमदृष्टि से परिपक्व लेखनी कर गए। रैदास ने श्रम पर दार्शनिक व सामाजिक सांस्कृतिक गहराई से लिखा है-
नेक कमाई जउ करइ गृह तजि बन नहिं जाय.
रविदास मनुष्य का धर्म है करम करहिं दिन रात,
करमह फल पावना नहि काहू के हाथ।
रविदास श्रम कर खाइए है, जो-लौ-पार बसाय.
नेक कमाई जौ करई कबह न निष्फल जाय.
धरम करम जाने नहीं, मन मह जाति अभिमान,
ऐ सोउ ब्राह्मण सो भलो रविदास श्रमिकहु जान.’

न माँग कर खाने का गौरवगान और न दान दक्षिणा का आवरण। रैदास समेत बेगमपुरा के सभी स्वप्नद्रष्टाओं ने श्रम की अहमियत समझकर हर वक्त की दुनिया के लिए एक स्वप्न सौंप दिया है। कँवल भारती अपने लेखा में लिखते हैं कि ‘बेगमपुर’ की तुलना सर टामस मोर (1478-1535) की महत्वपूर्ण कृति ‘यूटोपिया’ से की जा सकती है; जो साम्यवादी काल्पनिक चिंतन पर आधारित है। यह कृति ‘प्लेटो की परंपरा का नवीकरण करते हुए स्वयं 16वीं सदी के पश्चात साम्यवादी कल्पनालोकों के सृजन में प्रेरणा का स्रोत बन गई। बेगमपुर में कोई संपत्ति का मालिक नहीं है और कोई दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं हैं। सभी समान हैसियत के हैं।

कँवल भारती अपने लेख में ज़िक्र करते हैं कि बेगमपुर शहर के ये निष्कर्ष हैं- (1) संपत्ति का स्वामी होना बुरा है। (2) कोई भी टैक्स देना बुरा है। (3) दोयम-सोयम दर्जे का नागरिक होना बुरा है। (4) अमीरी तथा गरीबी बुरी है और (5) अस्पृश्यता बुरी है। इन निष्कर्षों को हम मार्क्स के समाजवादी तत्त्व-चिंतन की दृष्टि से नहीं देख सकते। हालांकि, संपत्ति पर वैयक्तिक स्वामित्व का विरोध उसके अनुकूल है; तथापि, एक समतामूलक समाज की दृष्टि से बेगमपुर सहर अपने समय से आगे की कल्पना है। यह उस समय के दलित-चिंतन के लिहाज से क्रांतिकारी भी है। इससे पता चलता है कि रैदास साहेब केवल कोरे कवि नहीं थे; बल्कि समाज-तत्त्व चिंतक भी थे। यानी बेगमपुरा एक ऐसा स्वप्नलोक हो, जहां कोई टैक्स न हो, कोई उत्पीड़न-शोषण न हो और केवल आनंद ही आनंद का राज हो। यह ऐसा स्वप्न है, जिसे हर दौर की पीढ़ियाँ देखना चाहेंगी।

रैदास अपने इसी विस्तार व सूक्ष्मता के चलते बेहद लोकप्रिय रहे। वैष्णव संत नाभादास ने भी रैदास की पूरे मन से प्रशंसा की, क्योंकि नाभादास का मानना था कि उन्होंने उन्हें ‘वर्णाश्रम-अभिमान’ से मुक्त किया यानी उनके जाति-आधारित गर्व से उन्हें छुटकारा दिलाया।6 जबकि तुलसी के रामराज्य में भी धर्म, वेद, पुराण के स्थिर सामाजिक सांस्कृतिक स्तरीकृत संकल्पनाओं ने मानवीय समता, बंधुत्व व न्याय पर पहरेदारी बरकरार रखी। इसीलिए तुलसी के स्वप्नलोक में सब तरह का सुख होने की शर्त है कि सामाजिक संरचनों का अनुपालन-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहू नहिं व्यापा।’
‘सब नर करहिं परसपर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत सुति नीती।’
जबकि रैदास होने का निहितार्थ है-
‘चारो वेद के करे खंडौती। जन रैदास करे दंडौती,’
‘कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।’

यह दो स्वप्नलोकों की दो वैचारिक दुनिया है। भक्ति आंदोलन के इस गहरे पहलू पर काम करते हुए हम अपने समकाल के लिए अपने अतीत से कुछ बेहद प्रासंगिक नींव की ईंटें सहेज सकते हैं। इन बुनियादों पर खड़ी इमारतें भविष्य के साम्प्रदायिक, कर्मकांडीय, अंधविश्वासी व विषमता जनित असंख्य झंझावातों से मुठभेड़ करने में सक्षम हो सकेंगी। अतीत के मिथ्या गौरवबोध से हम एक विभ्रम व विवेकहें भीड़ ही रॉक सकते हैं, एक आधुनिक राष्ट्र राज्य नहीं। इसकी सांस्कृतिक ज़रूरत है कि हम अतीत के स्वप्नलोकों का समसामयिक अध्ययन करते हुए नई पीढ़ी के सामने सांस्कृतिक विकल्प पेश कर सकें। बेगमपुरा व रामराज्य का सांस्कृतिक व समसामयिक विश्लेषण उन्हें उस विचार तक ले जाएगा, जहां वे चुन सकेंगे। रैदास का बेगमपुरा का स्वप्न अपने वैचारिक नज़रिए के अलगाव को दिखाता है, जब रैदास लिखते हैं-
बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ.
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफु न खता न तरसु जुवालु.
अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई.
काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही.
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर.
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै, महरम महल न को अटकावै.
कह ‘रविदास’ खालस चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।’

यह वह स्वप्न है, जिसमें हर क़िस्म का न्याय है। सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक न्याय, आर्थिक न्याय व राजनीतिक न्याय। ऐसे सभी क़िस्म के न्याय के बिना रचा गया हर स्वप्न सांस्कृतिक यूटोपिया के आदर्श की मुँडेर पर ही सुशोभित हो सकता, यथार्थ के धरातल पर आना उसके लिए अकल्पनीय है। डॉ आंबेडकर की तरह रैदास का भी कहना है कि जाति एक ऐसा रोग है, जिसने भारतीयों की मनुष्यता का नाश कर दिया है. जाति इंसान को इंसान नहीं रहने देती. उसे ऊंच-नीच में बांट देती है. एक जाति का आदमी दूसरे जाति के आदमी को अपने ही तरह का इंसान मानने की जगह ऊंच या नीच मानता है.7 आधुनिक पूँजीवादी, ब्राह्मणवादी सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक चुनौतियों के बरक्स ये स्वप्नलोकों की सार्थकता है कि वे आधुनिक राष्ट्र राज्य के निर्माण में कितने प्रासंगिक ठहरते हैं। बेगमपुरा इस दृष्टि से एक बेहद अहम ख़्वाब है। इस ख़्वाब में मूलतः यह है-
ऐसा चाहो राज में, जहाँ मिलें सबन को अन्न,
छोट बड़ों सब सम बसे, रविदास रहे प्रसन्न।’

रैदास के उलट तुलसी के राम चरित मानस और राम का चरित्र पूरी तरह द्विजों और पितृसत्ता के वर्चस्व की रचने वाला है। वस्तुतः राम के चरित्र का गुणगान करने वाला रामचरित मानस मनु-स्मृति और पुराणों की कलात्मक अभिव्यक्ति है। राम के चरित्र को न्याय का प्रतीक बताकर और रामचरित मानस को प्रगतिशील साहित्य घोषित कर रामविलास शर्मा, शिवकुमार मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी और नामवर सिंह जैसे वामपंथी आलोचकों ने भी उत्तर भारत में द्विज पुरुषों के सांस्कृतिक वर्चस्व की परंपरा को और मजबूत बनाया। अनेक अन्य हिंदी लेखकों ने भी अपने सृजनात्मक साहित्य के माध्यम से यही किया। ऐसा करके उन्होंने हिंदी समाज के वर्ण-जातिवादी और पितृसत्तात्मक चरित्र को मजबूत बनाया। इसके बरक्स बहुजन परंपरा के आलोचकों चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, कंवल भारती और डॉ. धर्मवीर जैसे बहुजन आलोचकों ने संत रैदास को बहुजन-श्रमण परंपरा के शीर्ष कवि के रूप में स्थापित किया और भारत की क्रांतिकारी बहुजन-श्रमण परंपरा को स्थापित करने की कोशिश किया। न्याय, समता, बंधुता और समृद्धि के समान बंटवारे पर आधारित प्रबुद्ध भारत का निर्माण रैदास के बेगमपुरा का निर्माण करके किया जा सकता है, रामराज्य की स्थापना करके नहीं।8 बेगमपुरा’ में रैदास अंत में कहते हैं- ‘जो हम सहरी, सु मीतु हमारा।’ यह बेगमपुरा का स्वप्न है, जिसमें आदर्श के नैतिक प्रतिमानों के लिबास के भीतर परम्परा व धार्मिकता का घालमेल नहीं, आधुनिकता व वैज्ञानिकता जनित समानता व न्याय की संकल्पना का एक बेहतर स्वप्न है। यही स्वप्न हमें एक नई दुनिया रहने के लिए सांस्कृतिक व साहित्यिक थाती के रूप में हासिल है। समसामयिक चुनौतियों के संदर्भ में भी बेगमपुरा वह भरोसा रचता है कि हां! आपके ग़म को दूर करके बे-ग़म ज़िंदगी का ख़्वाब देखना ही मनुष्यता का पक्ष चुनना है। रैदास ने मनुष्यता का पक्ष चुना।