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परवल की खेती से किसान होते थे मालामाल लेकिन अब परवल की खेती विलुप्त होने के कगार पर

हरि सब्जियों में सबसे पोस्टिक वाला सब्जी है परवल
तकनीकी जानकारी के अभाव में परवल की खेती के प्रति उदासीन है किसान

बिहार:लत्तरदार सब्जियों मे परवल सारण रेंज ही नहीं अपितु पुरे भारत की महत्वपूर्ण पौस्टिक सब्जी की फसल हैं, जिसमे विटामिन, कार्बोहाईड्रेट और प्रोटीन की अधिकता होती हैं, साथ ही ठंडा , पीतनाशक, जल्दी पचने वाला एक सुन्दर दिखने वाली सब्जी हैं, जिसका इस्तेमाल ज्यादातर विवाह,तिलक कार्यक्रम इत्यादि में ज्यादातर किया जाता है। परवल का अचार, और मिठाई भी बनाई जाती हैं। जिसकी माँग हमेशा मार्केट में बनी रहती हैं, इसके बावजूद भी बड़े संख्या में किसान वर्तमान समय में फसल में लगते बीमारी और सही तकनिकी जानकारी नहीं मिलने के कारण परवल की खेती से मुँह मोरते जा रहे हैं।वर्तमान समय से एक दशक पहले तक परवल की खेती में सारण रेंज का उच्च संस्थान होता था लेकिन अब इसकी खेती काफ़ी सिमट गई हैं।

आइये जानते हैं परवल की विज्ञानिक खेती के बारे में:
गर्म एवं अद्रता वाली जलवायु परवल के खेती के लिए सब से उपयुक्त मानी जाती है। परवल अधिकतम 45डिग्री और न्यूनतम 8 डिग्री तापमान तक उत्पादन देता हैं जिस कारण इसकी उत्पादन अच्छी प्राप्त होती हैं।

परवल के खेती के लिए भूमि:
परवल की खेती के लिए दोमट एवं बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है वैसे भारी मिट्टी को छोड़कर सभी प्रकार की मिट्टियों में परवल की खेती हो सकती है।नदियों के किनारे की दियारा क्षेत्र में परवल का उत्पादन काफी बेहतर होता है । इस सब्जी फसल को दियारा क्षेत्र के लिए ग्रीन गोल्ड के नाम से जाना जाता है । जिस भूमि में परवल की खेती करनी हो उसमें जल निकास की प्रर्याप्त सुविधा होने के साथ ही कार्बनिक पदार्थो की प्रचुरता लाभदायक होता है ।

खेत की तैयारी कैसे करें:
परवल की खेती के लिए खेत की ग्रीष्मकालीन जुताई में मिटटी पलटने वाले हलसे करनी चाहिए।इससे हानिकारक कीड़ें मकोड़े मर जाते है साथ ही खरपतवारों के अंकुरण पर भी अंकुश लगता है।इसके बाद लगभग तीन जुताई कल्टीवेटर अथवा देशी हल से करनी चाहिए और इसी समय 20 से 25 टन गोबर की सड़ी खाद अथवा कम्पोस्ट खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी में मिला देनी चाहिए । इसके बाद पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरी बना लेनी चाहिए ।

उन्नत प्रभेद
परवल की किस्मों में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अनुसंशित है इसके लिए अच्छा होगा कि पौध रोपण से पूर्व कृषि वैज्ञानिकों की सलाह लें । प्रमुख प्रभेद निम्न है- राजेन्द्र परवल -1,राजेन्द्र परवल -2 , स्वर्ण अलौकिक,एस.पी.-1,एफ.पी.- 3,स्वर्ण रेखा,सोनपुरी,फैजाबाद परवल -1 , 2 , 3 , 4 , 5 , सफेदा आदि प्रमुख है।

बीज दर:परवल के पौध रोपण के लिए पुरानी लत्तरों को लगाया जाता है जो लगभग 2500 सौ से 3000 हजार होती है ।
रोपण का समय : पौध रोपण का समय अलग -अलग क्षेत्रों के लिए अलग है मैदानी क्षेत्रों में जुलाई से मध्य कभी भी अपनी सुविधानुसार पौध रोपण कर सकते हैं । दियारा क्षेत्रों में अक्टूबर में रोपाई के लिए सितंबर से अक्टूबर का समय उचित रहता है ।

पौध रोपण की प्रक्रिया:परवल में नर और मादा पौधे अलग-अलग होते हैं । अतः रोपाई के समय सावधानी पूर्वक मादा-नर का अनुपात 10 : 1 की दर से पूर खेत में फैलाकर लगाना चाहिए ताकि पुष्प के समय अच्छी तरह परागण क्रिया के उपरान्त फल बन सके । लगभग 120 से 150 सेमी. लम्बी पुरानी लता को प्रयोग में लाया जाता है । लता को लगाने के लिए खेत में पंक्ति से पंक्ति 2.5 मीटर पौधे की दूरी 1.5 मीटर पर निशान लगाकर थाले बना लिए जाते हैं और थाले जमीन से 5 से 6 सेमी . ऊँचा होना चाहिए । इन्ही थालों में लत्तरों को मोड़कर लगभग एक फिट का बनाकर 10 सेमी.की गहराई में रोपाई कर दिया जाता है ।

पोषक तत्व प्रबंधन:खाद एवं उर्वरक को थाले में दिया जाता है रोपण से पूर्व थाले की जगह पर गड्ढे बना लिया जाता है और गड्ढे में 3 किग्रा.गोबर की सड़ी खाद , 250 ग्राम नीम की खल्ली , 10 ग्राम यूरिया , 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट 25 ग्राम पोटाश प्रति गहढा मिट्टी में मिलाकर भर दिया जाता है । रोपण के 40 से 45 दिन पर 20 ग्राम यूरिया प्रति थाला देना चाहिए ।

सिंचाई प्रबंधन:पौध रोपण के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करें इसके बाद 10 से 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए । फूल एवं फल बनते समय नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा उत्पादन घट सकता है ।

खरपतवार नियंत्रण:खरपतवार थाले में डाले गये पोषक तत्व को ग्रहण कर लेते हैं जिससे पौधों की वृद्धि रूक जाती है । इसके लिए निराई- गुड़ाई कर खरपतवारों को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए । निराई-गुड़ाई से मिट्टी मुलायम हो जाती है और वायु संचार बढ़ता है जो जड़ों के विकास में अत्यंत आवश्यक होता है ।
पौधा संरक्षण:लाल भुंग : परवल में पत्ती बनने के समय इस कीट का आक्रमण होता है । कीट पत्तियों को खाकर नष्ट कर देता है , जिससे पौधे मर जाते हैं ।
प्रबंधन : नये पौधों के पत्तों पर राख में किरासन तेल मिलाकर सुबह में भूरकाव करें , मालाथियान 5 प्रतिशत धूल या क्वीनलफास 1.5 प्रतिशत धूल का 25 किलोग्राम प्रति हे . की दर से पौधों पर भूरकाव करें ।
फलमक्खी : मुलायम फलों की त्वचा के अंदर फल मक्खी की मादा कीट अंडे देती है । अण्डे से कीट के पिल्लू निकलकर फलों के गुद्दे को खाता है , जिससे बाद में फल सड़ जाता है ।

प्रबंधनः सभी आक्रांत फलों को चुनकर नष्ट कर 8-10 प्रति हेक्टेयर लाईफ राईम फेरोमोन ट्रैप का इस्तेमाल करें उसके अलावा मिट्टी के बर्तन में छोआ,ताड़ी तथा 2 बूंद कौटनाशी मिला कर पौधे के पास रखा जाता है । ताड़ी आकर्षक का काम करता है,मिट्टी के बर्तन में कीटनाशी के सम्पर्क में आकर मरती है,रासायनिक उपचार लिए मालाथियान 50 ई.सी. 1.5 मिली . प्रति ली . पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें!

चूर्णिल आसिता रोग : इस रोग में पत्तियों पर छोटे – छोटे सफेद धब्बे बनते हैं जो बाद में सफेदचूर्ण रूप ले लेते हैं । आक्रान्त पत्तियाँ सूख जाती है तथा पौधों की वृद्धि भी रूक जाती है नमी युक्त मौसम में यह रोग तेजी से फैलता है ।                                                          

प्रबंधन : खेत को खरपतवार से मुक्त रखें , खड़ी फसल पर ट्राईडेमार्फ 80 ई.सी. या कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें ।

तुलासिता रोग : पत्तियों की निचली सतह पर बैंगनी रंग के धब्बे बनते हैं , जो ऊपरी सतह पर पीले नजर आते हैं । इन धब्बे के ठीक नीचे सफेद फफूंद के जाल दिखाई देते हैं । पत्तियाँ सूख जाती है । पौधे की बढ़वार रूक जाती है ।                                                

प्रबंधन : सघन खेती नहीं करें , खेत की स्वच्छता के लिये फसल अवशेष नष्ट कर दें , मैकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें , रोग की तीव्रता अधिक होने पर मेटालैक्सिल तथा मैन्कोजेब संयुक्त उत्पाद का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।

तना एवं फल सड़न : तना एवं फलों पर नीले गहरे हरे रंग के धब्बे बनते हैं , ये धब्बे बढ़कर फल को सड़ा देते हैं । सड़े फलों से बदबू आने लगती है जो फल जमीन से सटे होते हैं वेज्यादा प्रभावित होते हैं । सड़े फला पर रूई से कवक दिखाई देते है ।                           

प्रबंधन : इस रोग से बचाव के लिए मैन्कोजेब 15 प्रतिशत घुलनशील ट्राईकोडरमा जैविक कीटनाशी से मिट्टी उपचार करें , फलों की जमीन में प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें । 472.5 ग्राम अथवा कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 3

ग्राम सूत्रकृमि ( निमैटोड ) : होकर सूख जाती है । पौधे की व इसके प्रकोप से जड़ों में छोटी छोटी ग्रंथियाँ बन जाती है तथा पत्तियाँ पीली बढ़वार काफी कम हो जाती है ।                                                                                                                                            

प्रबंधन : रोग ग्रस्त पौधों को खेत से बाहर कर दें , फसल चक्र अपनायें , नीम अथवा अण्डी की खल्ली 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से फसल लगाने के 3 सप्ताह पहले खेत में डालना लाभप्रद होता है , परवल के साथ गैन्टा फूल को अन्तरवर्ती खेती करो फिप्रोनिन 0.03 प्रतिशत की दानेदार दवा 5-8 ग्राम प्रतिथाला इस्तेमाल करें ।

परवल की लतरों को सहारा देने से उत्पादन बढ़ने के साथ फलों का आकार अच्छा बनता है । इसके लिए अपनी आवश्यकता एवं उपस्थित संसाधनों से मचान बनाकर लताओं को उस पर चढ़ दिया जाता है । मचान पर लताओं को चढ़ाने से पौधों के आसपास खरपतवार नियंत्रण एवं अन्य कर्षण क्रियाओं के लिए सुविधा होती है ।

लताओं की कटाई : अक्टूबर-नवंबर में परवल में फलन बंद हो जाती है इस समय सतह से 20 25 सेमी मीटर ऊँचाई से लताओं को काट दिया जाता है । इससे जनवरी- फरवरी में नये कल्ले निकलते हैं और मार्च में पुन : फल लगना प्रारंभ हो जाता है ।

उपज : प्रथम वर्ष में 100 से 130 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है और दूसरे वर्ष 200 एवं तीसरे वर्ष में लगभग 300 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है ।
वही अगर परवल की खेती की लागत की औसतन 80-90 हजार /हेक्टेयर आता और जिसमे औसतन 600किविंटल उत्पादन होता हैं अगर बाजार मूल्य 1000रु /किविंटल भी हो तो 6लाख रूपये का उत्पादन बिक्री होता यानि औसतन किसान भाई परवल की खेती कर 3लाख रूपये प्रति हेक्टेयर 9माह मे आमदनी कर सकते हैं।