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मजदूर दिवस के अवसर पर खास रिपोर्ट…..

बिहार:कल मजदूर दिवस हैं लेकिन बिहार के मजदूरों की स्थिति जस की तस हैं लिहाज़ा मजबूरी में मजदूरी करना कितना कष्टदायक होता हैं यह तो मजदूर ही जानें…..
पेश है सुनीता की ज़ुबानी…….

मजदूरों की हैं मजबूरी लेकिन जीना भी तो हैं जरूरी।
चल निकलता हैं काफिला वहां, जहां उम्मीद की लौ जलती है। कुछ इसी तरह से मजदूरों की मजबूरी, लाचारी या फ़िर बेबसी होती हैं। जो उन्हें अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर, रोजगार की तलाश में जाना पड़ता है। बिहार के मजदूर देश के विभिन्न राज्यों में रोजगार के लिए जाते हैं। चाहे, वह मराठियों का महाराष्ट्र हो, सरदारों पंजाब हो या फ़िर हरियाणा, दिल्ली, दक्षिण भारत का चेन्नई हो। कहीं भी देख लीजिए हर जगह बिहारी ही मिलेंगे। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि बिहार में रोजगार का अभाव है। अगर रोजगार है भी तो संतोषजनक नहीं है। जिस कारण यह दूसरे राज्यों में रोजगार करने के लिए विवश हो जाते हैं।देश का वह कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहां यह काम की तलाश में नहीं जाते है। देश के हर हिस्से में इनकी पहुंच है। वहां जाकर रोजगार करना इनकी मजबूरी होती है। क्योंकि इन्हें अपने राज्य में रहते हुए पेट की आग मिटाने के लिए कोई काम धंधा नहीं मिलता हैं। अगर मिल भी जाएं तो इन्हें संतोषजनक नहीं लगता हैं। रोज़ी के बदले रोज़ा मिलने के कारण यह अपने घर से सैकड़ो किलोमीटर दूर रोजगार की तलाश में चले जाते हैं। मजदूरी में मजबूरी के सिवाय कुछ भी नहीं हैं। जब कोई रोजगार, व्यवसाय, खेती या फिर कोई पैतृक व्यवसाय नहीं रहता है तथा शिक्षा का अभाव होता है। बिहार के मजदूरों के पास अपनी कोई पैतृक संपत्ति नहीं रहती हैं तब ऐसी स्थिति में मेहनत करना मजबूरी बन जाती है की किसी दूसरे राज्यों में जाकर मेहनत मजदूरी कर अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करना।

बिहार के मजदूर देश के कई राज्यों में जाकर करते हैं मेहनत मजदूरी:
सदियों से अपना बिहार मजदूरों की मजदूरी के नाम से बदनाम रहा है। पूरा देश यह जानता है कि बिहार वासी भारी संख्या में मजदूरी करने के लिए बिहार से बाहर अन्य राज्यों में जाते हैं। जिस कारण पुरे बिहारियों को मजदूर ही समझ लिया जाता हैं। यही एक कारण होता है कि पूरे भारत में बिहारियों को जो पढ़े-लिखे होते है। अगर वह नौकरी पेशा या व्यवसाय से जुड़े परिवार से आते हैं तो उन्हें भी बिहारी बोल कर अपमानित किया जाता हैं। लेकिन यह तस्वीर उस समय बदल गई। जब 2020 में कोविड-19 के कारण बिहार के ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों के भी मजदूर भारी संख्या में अपने राज्य वापस लौटने लगे थे। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के अलावा कुछ दिल्ली के मजदूर भारी संख्या में पैदल ही अपने-अपने घरों की ओर निकल पड़े थे। 2020 की इस तस्वीर ने पूरे भारत को यह दिखा दिया था कि मजदूर सिर्फ बिहार से नहीं बल्कि और भी राज्यों से दूसरे राज्य मजदूरी करने के लिए जाते हैं।

बिहार के मजदूरों की बेबसी को लेकर सैकड़ों कहानियां लिखी गई:
2020 की वह तस्वीर मजदूरों की दशा, बेबसी, लाचारी का स्पष्ट चित्रण था। बेरोजगारी, शिक्षा का अभाव और शोषण की दर्दनाक तस्वीर थी। जो पूरे विश्व के सामने उभर कर सामने आई थी। जिसे हमलोग मजदूरो का पलायन कहते है। सरकार के सारे दावे की कलई खुल रही थी। देश में लॉक डाउन से पहले कुछ वक्त इन मजदूरों को भी दिया जाना चाहिए था। लेकिन भारत सरकार ने ऐसा नही किया जिसका खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ा था। लॉक डाउन के कुछ दिनों बाद रेल और बस परिवहन को बंद करना चाहिए था, ताकि यह मजदूर अपने घर पहुंच जाते। जिससे मजदूरो की बेबसी की तस्वीरें उभर कर सामने नही आती। और ना ही मजदूरो के बेबसी की सैकड़ों कहानियां लिखी जाती।

सरकार की सत्र बदल रही हैं लेकिन कारखानों का भाग्य नहीं:
केंद्र और बिहार सरकार की उदासीनता भी बिहार के लोगों को मजदूरी करने के लिए विवश करती हैं। केंद्र सरकार बिहार के विकास को लेकर उदासीन है तथा राज्य सरकार भी चिरनिद्रा की स्थिति में सोई हुई है। बिहार के बहुत सारे छोटे-छोटे काल कारखाने बंद पड़े हुए है। उन्हें लेकर सरकार पूरी तरह से उदासीन है। उदाहरण के तौर पर सारण जिले के मढ़ौरा अनुमंडल मुख्यालय स्थित चीनी मिल, मार्टन फैक्ट्री, डिस्टिलरी, सिवान के सुता मिल, पूर्णिया जिले के बनमनखी स्थित चीनी मिल, ख़ुशकीबाग स्थित दवा संयंत्र सहित बिहार के कई अन्य जिलों में न जाने छोटी छोटी कितनी मिले व लघु कारखाने हैं जो वर्षो से बंद पड़े हुए हैं। राज्य सरकार सत्र पर सत्र बदल रही हैं लेकिन इन कारखानों का भाग्य नहीं खुल रहा हैं। इन पर लटका हुआ ताला नहीं खुल रहा है। लोगों को बिहार में रोजगार नहीं मिल रहा हैं। जिस कारण उन्हें बिहार से बाहर रोजगार की तलाश में जाना पड़ता है। हद तो तब हो गई जब 2020 में प्रत्येक राज्य कोविड-19 के संकट काल में अपने मजदूरों को वापस अपने राज्य बुला रहा था। बिहार सरकार उन्हें प्रवासी मजदूर कह कर उनकी अवहेलना कर रही थी। उन्हें ज्ञान दे रही थी कि जहां हैं वहीं सुरक्षित रहें। केंद्र सरकार के आदेश के बाद ही बिहार सरकार ने मजदूरों को वापस बुलाया था। पूरे भारतवासी जब एक है तो भारत के अंदर किसी भी राज्य में स्वतंत्र रूप से आ जा सकते हैं। कहीं भी रोजगार कर सकते हैं। तब यह प्रवासी शब्द का उच्चारण क्यों।

सरकार की ढुलमुल नीतियों के कारण बिहार में उधोग धंधे हुए है चौपट:
प्रवासी कहकर बिहार सरकार अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाह रही थी लेकिन उनकी यह कोशिश सफल नहीं हुई। आखिरकार उन्हें मजदूरों को वापस बिहार लाना पड़ा। राज्य सरकार की लाचारी देखिए किनबिहार आने के बावजूद भी उन्हें रोजगार मुहैया नहीं कराया गया। कराते भी कैसे रोजगार का साधन ही नहीं है। जिस कारण मजदूरों को पुनः दूसरे राज्यों में मजदूरी करने जाना पड़ा।
बिहार की भौगोलिक स्थिति भी मजदूरों का साथ नहीं देती हैं। भौगोलिक स्थिति के कारण रोजगार कि हमेशा कमी रहती है। बिहार पर अग्नि और वायु का हमेशा से प्रकोप बना रहा है। बिहार कभी सूखे से त्रस्त रहता है तो कभी बाढ़ से विभीषिका से। बाढ़ से प्रति वर्ष किसानों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। बिहार की जमीन भी ऐसी है की जहां कोई बड़ा कारखाना नहीं लगाया जा सकता है। परंतु बिहार के जिस जिलों में यह कारखाना लगाया जा सकता है। वहां केंद्र और बिहार सरकार की उदासीन नीतियों के कारण ऐसा होने नहीं दिया जाता हैं। केंद्र सरकार भी इस मामले में हमेशा से बिहार की अनदेखी करता रहा है। बहुत ज्यादा जरूरी है कि बिहार में बंद पड़े फैक्ट्री, छोटे-छोटे कल कारखानों व उधोग धंधे को पुनः चालू किया जाए या फ़िर नए नए उधोग धंधे लगाए जाएं। जिससे कि बिहार में रोजगार के अवसर बढ़ें। परंतु इन सब बातों को सरकार तक पहुंचाएगा कौन। आए दिन समाचार पत्रों में इस तरह की खबरें छपती हैं। लेकिन इन खबरों का मजदूरों की बेबसी का सरकार पर कोई असर नहीं होता है। मजदूरो की यह स्थिति मन को विचलित करती है। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ सत्र पूरा करना नहीं होता हैं। राजनीतिज्ञों के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करना नहीं होता हैं। लोकतंत्र निस्वार्थ भाव से सेवा करना होता है। जब तक राजनीति से जुड़े लोग इस बात को नहीं समझेंगे तब तक देश या राज्य का विकास नहीं होगा।

मजदूर दिवस के दिन से बिहार के श्रमिकों का बनेगा आयुष्मान भारत योजना के तहत गोल्डेन कार्ड:
2020 में कोविड-19 के कारण मजदूरों की घर वापसी भारी संख्या में हुई हैं और उससे जो स्थिति उभर कर सामने आई थी। जिस कारण केंद्र व राज्य सरकार की बेइज्जती पूरे विश्व में हुई थी। उससे सीख लेते हुए राज्य के श्रम संसाधन मंत्री ने 2021 में मजदूरों के लिए राज्य सरकार के द्वारा प्रयास किया जा रहा है। प्रवासी श्रमिकों का आयुष्मान भारत योजना के तहत गोल्डन ई-कार्ड बनाया जाएगा। जिसकी शुरुआत 01 मई मजदूर दिवस के दिन होनी हैं। बिहार के श्रम संसाधन विकास विभाग की ओर से प्रवासी श्रमिकों को आयुष्मान भारत योजना के तहत गोल्डन कार्ड बनाने की प्रक्रिया शुरू हो रही हैं। श्रम संसाधन मंत्री जिवेश मिश्रा ने बताया हैं कि राज्य के लगभग 15 लाख श्रमिकों का गोल्डन ई-कार्ड बनाया जाएगा। जो श्रमिक प्रवासी हैं उनका भी गोल्डन कार्ड बनाया जाएगा। बस श्रमिकों को अपना पंजीयन करवाना होगा और आधार से लिंक करवाना होगा। इस कार्य को पूरा करने का लक्ष्य सरकार ने ज़िला प्रशासन, स्वास्थ्य विभाग के अलावे पंचायत जन प्रतिनिधियों को यह जिम्मेदारी दी हैं। जिसके अंतर्गत 15 लाख श्रमिकों का गोल्डन कार्ड बनाया जाएगा। सरकार के इन प्रयासों के साथ-साथ मजदूरों के लिए जागरूकता का होना भी जरूरी है। उनके जीवन स्तर में सुधार किस तरह से होगा। इसके लिए विश्लेषण भी करना जरूरी होता हैं। इनकी शिक्षा व दीक्षा का होना भी जरूरी है। बहुत ही ज्यादा जरूरी है की कुछ प्रयास शिक्षा और जागरूकता को लेकर भी राज्य सरकार की तरफ से होनी चाहिए।

अन्याय के जैसा होता हैं मजदूरों की अनदेखी करना:
बिना मजदूरों के ना कोई फैक्ट्री चल सकती हैं और ना ही कोई कारखाना चल सकता हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मजदूरों की आवश्यकता होती है। मकान बनाने से लेकर फसल की कटाई तक। बड़े-बड़े कारखाने, छोटे-छोटे उद्योग, घरेलू स्तर के रोजगार से लेकर हर प्रकार की मंडियों तक मजदूरों की आवश्यकता है। इनकी अनदेखी करना इन पर अन्याय करने जैसा है। इसलिए इन्हें हर वह सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। जो जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता हैं। ताकि जीवन में मजबूरी ना बने।
मजदूरी करना कार्य हो ना की मजबूरी। इन्हें इनके परिश्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए। इनके भविष्य की सुरक्षा को लेकर भी हर तरह की योजनाएं होनी चाहिए। ताकि मजदूरी मजदूरी हो मजबूरी नहीं।

(शिक्षिका सुनीता कुमारी ज़िला स्कूल पूर्णिया के निजी विचार है)