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जिले में नाटापन (स्टन्टिंग) की संख्या में हुई 8% से अधिक की कमी, राज्य के औसत से ज्यादा

•राज्य में पांच सालों में 5% से अधिक की कमी
• राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों से हुआ ख़ुलासा
• पोषण के अन्य सूचकांकों में सुधार बना सहायक
• वर्ष 2014 में ‘बाल कुपोषण मुक्त बिहार’ अभियान की शुरुआत बनी बदलाव की सूत्रधार
• नाटापन को कम करने में शिवहर रहा बिहार में अव्वल

किशनगंज(बिहार)बच्चों को नाटापन के जाल से निकलने में राज्य को फ़िर सफलता मिली है. हाल में जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों ने इस बात की पुष्टि की है. विगत पांच सालों में बिहार में नाटापन (उम्र के हिसाब से लम्बाई का कम होना) में 5.4% की कमी आई है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4( वर्ष 2015-16) के अनुसार में बिहार में 48.3% बच्चे नाटापन से ग्रसित थे, जो अब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (वर्ष 2019-20) के अनुसार घटकर 42.9% हो गयी है. यह कमी वर्ष 2015-16 में जारी हुई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के दौरान भी दर्ज हुयी थी. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (वर्ष 2005-06) में बिहार में 55.6% बच्चे नाटापन के शिकार थे, जो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4(वर्ष 2015-16) में घटकर 48.3% हो गयी थी.
बच्चों में नाटापन होने के बाद इसे पुनः सुधार करने की गुंजाइश कम हो जाती है एवं यह बच्चों में कुपोषण की सबसे बड़ी वजह भी बनती है. इस लिहाज से नाटापन में आई कमी सुपोषित बिहार की राह आसान करने में प्रमुख भूमिका अदा करेगी. अपर्याप्त पोषण एवं नियमित संक्रमण जैसे अन्य कारकों के कारण होने वाला नाटापन बच्चों में शारीरिक एवं बौद्धिक विकास को अवरुद्ध करता है जो स्वस्थ भारत के सपने के साकार करने में सबसे बड़ा बाधक भी है.

किशनगंज में दर्ज हुई राज्य के औसत प्रतिशत से ज्यादा की कमी:

यदि विगत पांच सालों में नाटापन में कमी की बात करें तो पूर्णिया जिला में नाटेपन का प्रतिशत राज्य के औसत कमी से ज्यादा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार पूर्णिया में 52.1% बच्चे नाटेपन के शिकार थे जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार जिले में नाटेपन से ग्रसित बच्चों की संख्या 43.5% ही है. इस तरह पिछले पांच वर्षों में जिले में नाटेपन ग्रसित बच्चों की संख्या में 8.6% की कमी आई है. बिहार का शिवहर जिला इसमें अव्वल रहा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार शिवहर में 53 % बच्चे नाटापन से ग्रसित थे जो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार 18.6% घट कर 34.4% हो गया है. यह कमी राज्य के औसत से 3 गुना से भी अधिक है. वहीं वैशाली जिला दूसरे स्थान पर है जहाँ पांच सालों में नाटापन 15.2% कम होकर 38.3 % हो गया है. तीसरे स्थान पर खगड़िया जिला है जहाँ पिछले सर्वेक्षण की तुलना में 15 % की कमी आने के बाद नाटापन 34.8% हो गया है. चौथे स्थान पर नालंदा जिला है जिसमें 11.5% की कमी दर्ज होने के बाद नाटापन 42.6% हो गया है. जबकि पांचवे स्थान पर मुंगेर जिला है जहाँ नाटापन 11.1 % कम होकर 35.5 % हो गया है.

सुपोषित बिहार के सपने को करना है साकार :

आई.सी.डी.एस. निदेशक आलोक कुमार ने कहा कि राज्‍य में बच्‍चों एवं महिलाओं के पोषण स्‍तर में अपेक्षित सुधार लाने हेतु आई.सी.डी.एस. के माध्‍यम से कई योजनाएँ क्रियान्वित की जा रही है। जिसका अनुश्रवण एवं मूल्‍यांकन विभिन्न स्तरों ICDS-CAS, आँगन-एप, RRS के माध्‍यम से किया जाता रहा है। जिसके फलस्‍वरूप स्‍वास्‍थ एवं पोषण के कुछ संकेतकों में सुधार है। आगे भी हमें निरन्‍तर इस दिशा में प्रयास करने की जरूरत है।

‘बाल कुपोषण मुक्त बिहार’ अभियान बना सूत्रधार:
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार विगत पांच सालों में बिहार में नाटापन में कमी आयी है. यद्यपि, इस सुधार में पोषण एवं स्वास्थ्य के कुछ विशेष सूचकांकों में आयी कमी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार विगत पांच सालों में बिहार में 6 माह तक केवल स्तनपान, संस्थागत प्रसव, महिला सशक्तीकरण, संपूरक आहार( 6 माह के बाद स्तनपान के साथ ठोस आहार की शुरुआत), कुल प्रजनन दर में कमी, 4 प्रसव पूर्व जाँच एवं टीकाकरण जैसे सूचकांकों में सुधार हुआ है। ये सूचकांक कहीं न कहीं नाटापन में कमी लाने में सहायक भी साबित हुए हैं। लेकिन वर्ष 2014 में शुरू की गयी ‘बाल कुपोषण मुक्त बिहार’ अभियान नाटापन पर अधिक केन्द्रित था। इस तरह अभियान के तहत किए गए सार्थक एवं सामूहिक प्रयास नाटापन में कमी लाने में सूत्रधार बना। वहीं मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना, समेकित बाल विकास सेवा सुदृढ़ीकरण एवं पोषण सुधार योजना (आई एस एस एन पी), पोषण अभियान एवं ओडीएफ़ जैसे कार्यक्रमों का बेहतर क्रियान्वयन भी नाटापन में सुधार लाने में सकारात्मक प्रभाव डाला है.

नाटापन के गंभीर दूरगामी परिणाम:
उम्र के हिसाब से लंबाई कम होना ही नाटापन कहलाता है। गर्भावस्था से लेकर शिशु के 2 वर्ष तक की अवधि यानी 1000 दिन बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास की आधारशिला तैयार करती है. इस दौरान माता एवं शिशु का स्वास्थ्य एवं पोषण काफी मायने रखता है। इस अवधि में माता एवं शिशु का खराब पोषण एवं नियमित अंतराल पर संक्रमण नाटापन की सम्भावना को बढ़ा देता है। नाटापन होने से बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध होता है. साथ ही नाटापन से ग्रसित बच्चे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक बीमार पड़ते हैं, उनका आई-क्यू स्तर कम जाता है एवं भविष्य में आम बच्चों की तुलना में वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ भी जाते हैं।

जिलावार रणनीति पर होगा कार्य:
यूनिसेफ के पोषण विशेषज्ञ रवि नारायण परही ने कहा कि हाल में जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों के अनुसार बिहार में नाटापन (स्टंटिंग) में 5.4% की कमी आई है . जबकि देश के अन्य प्रमुख राज्यों में नाटापन की दर घटने की जगह बढ़ी है. बिहार ने स्टंटिंग दरों को कम करने के लिए उल्लेखनीय रूप से अच्छा कार्य किया है. की आवश्यकता है. विभिन्न विभागों के अभिसरण (कन्वर्जेन्स) के माध्यम से पोषण एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी विशेष जरुरत वाली माताओं को चिन्हित करने एवं 6 से 23 माह एवं खासकर 6 से 8 माह के बीच बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए आहार विविधता पर अधिक ध्यान देने की जरुरत है. इसके लिए जिलावार पोषण सूचकांकों के अनुसार रणनीति बनानी होगी जिससे पोषण लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकेगा.

घर के पुरुष भी सुनिश्चित करें अपनी सहभागिता :
घर-घर सुपोषण की अलख जगाने की दिशा में आईसीडीएस एवं स्वास्थ्य विभाग के साथ कई अन्य सहयोगी संस्था भी निरंतर कार्य कर रही है। लेकिन सरकारी प्रयासों के इतर इसको लेकर सामुदायिक जागरूकता एवं सहभागिता भी महत्वपूर्ण है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य एवं पोषण को लेकर माताओं की सक्रियता अधिक है। अभी भी पुरुष अपने बच्चे के पोषण को लेकर गंभीर नहीं है। गर्भवती महिला का स्वास्थ्य एवं पोषण, बच्चों का स्तनपान एवं संपूरक आहार जैसे बुनियादी फैसलों में पुरुषों की सहभागिता होने से कुपोषण के दंश से बच्चों को बचाया जा सकता है।