• संक्रमण से जान गंवाने वाले आधा दर्जन से अधिक लोगों के अंतिम संस्कार में निभायी महत्वपूर्ण भूमिका
• सैकड़ों मरीजों को कोरेंटिन सेंटर व गंभीर रोगियों को बड़े अस्पताल पहुंचाने में दोनों की भूमिका सराहनीय
अररिया(बिहार)कोरोना संकट के दौर से जुड़े कुछ एक वाकिया को याद कर 28 वर्षीय मो आदिल आज भी सिहर उठते हैं. आदिल एंबुलेंस सेवा 101 में सहायक के पद पर कार्यरत हैं. मो सादिक एंबुलेंस चाकल के रूप में सदर अस्पताल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. कोरोना संकट की मार झेल चुके शहर का शायद ही कोई ऐसा परिवार हो जो इन दो नामों से बखूबी वाकिफ नहीं. दरअसल इन दोनों की जोड़ी ने संकट के इस दौर में मानवता की सेवा का अनूठा मिसाल पेश किया. हर दिन सैकड़ों मरीजों को कोरेटिंन सेंटर पहुंचाना. गंभीर रूप से बीमार मरीजों को इलाज के लिये कोविड केयर सेंटर छोड़ना. इतना ही नहीं संक्रमण की चपेट में आये व्यक्ति की मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार की जुगत में भी दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके इस कार्य के लिये पूरा स्वास्थ्य विभाग आज भी इन दोनों के मुरीद है.
मरीजों की सेवा को समझी अपनी जिम्मेदारी
कोरोना काल से जुड़े अपने अनुभव साझा करते हुए आदिल कहते हैं -जून-जुलाई के उमस भरे मौसम में दस-दस घंटे पीपीई कीट पहन कर गुजराना कठिन था. वहीं अपने प्रति लोगों के तिरस्कार पूर्ण बर्ताव को झेलना और भी मुश्किल. मरीजों को लेकर कोरेंटिन सेंटर एवं गंभीर रोगी व सैंपल को लेकर हायर सेंटर ले जाने के क्रम में पास रखा खाना-पानी का सामान खत्म हो जाने के बाद बड़ी परेशानी होती थी. एंबुलेंस देख कर ही लोग खान-पान की चीजें देने से इनकार कर देते थे. पीपीई किट पहने देख तो लोग लाठी-डंडे लेकर हमें भगाने पर उतारू हो जाते थे. ये सब देख मन दुखी तो होता था. लेकिन फिर मरीजों की सेवा को अपनी जिम्मेदारी समझ हम लगातार उनकी सेवा में जुटे रहते थे.
शव लदे वाहन के साथ विरान जगहों पर बितायी कई रात
आदिल कहते हैं इस तरह की बीमारी के बारे में हमने अपने बाप-दादा से भी नहीं सुनी थी. अपना अनुभव साझा करते हुए आदिल कहते हैं संक्रमण से किसी व्यक्ति की मौत के बाद तो उनके परिजन शव को अपने लिये एक बोझ हीं मानते थे. छूना तो दूर कोई पास भी नहीं भटकता था. गांव वाले शव लदे एंबुलेंस को गांव घुसने नहीं देते थे. तो परिजन शव लेना नहीं चाहते थे. इस कारण घंटों कहीं विरान जगहों पर शव लदे वाहन को लेकर खड़े रहना पड़ता था. कई बार पूरी रात शव लदे वाहन के साथ विरान जगहों पर ही बिताने के लिये बाध्य होना पड़ा. भूखे-प्यासे कई घंटे बीत जाने के बाद शव के अंतिम संस्कार के लिये खूद से ही जुगत लगानी पड़ती थी. ताकि किसी तरह वाहन से शव को बाहर निकाला जाये और हम अपने घर लौट सकें.
झेलना पड़ा लोगों का तिरस्कार, झेलनी पड़ी भटकार
एंबुलेंस चलाना हमारी ड्यूटी थी. तो चाह कर भी हम इससे इनकार नहीं कर सकते थे. लेकिन इस कारण उन्हें अपने परिवार, पड़ोस व परिचित लोगों के तिरस्कार का सामना करना पड़ा. घर जाने पर परिजन भी हमसे कटे कटे रहते थे. तो पड़ोस में इसे लेकर विरोध के स्वर उठने लगते थे. ऐसे में कई कई दिनों तक परिवार वालों से मुलाकात भी नहीं हो पाती थी. हम एंबुलेंस लेकर कहीं खाने-पीने के लिये रूकते तो लोग वहां से तुरंत भाग जाने को कहते थे. हम अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों को जरूरी मदद पहुंचाने के लिये काम कर रहे थे. लेकिन हमारे प्रति लोगों का रवैया बेहद बेरूखी भरा होता था. इससे दुख होता था. लेकिन नादानी में लोग ऐसा कर रहे हैं. यही सोच कर अपने दिल को समझा-बूझा कर फिर अपने काम में जुट जाना होता था.
लोगों के ठीक होने की खबर सुनकर होती है खुशी
कोरोना से जुड़े अपने अनुभव साझा करते हुए एंबुलेंस चालक संजय यादव, ईएमटी मनीष कुमार, मिथुन कुमार, मो सरफराज, मनीष कुमार, मो जावेद, इम्तियाज सहित अन्य एंबुलेस चालाकों ने बताया वैश्विक महामारी के दौर में उन्होंने विपरित परिस्थितियों में भी लोगों तक बेहतर सेवा उपलब्ध कराने के कार्य में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर परिवार को छोड़ 24 घंटे जान में जोखिम में डाल कर लोगों की सेवा के प्रति तत्तपर रहे. इसके बावजूद उनके कार्यों को कभी विशेष तवज्जो नहीं दिया गया. हां जब कोई मरीज ठीक होकर फोन पर यह जानकारी देते है कि भैया मैं पूरी तरह ठीक हो गया हूं. तो लगता है कि ईश्वर ने वो सब कुछ दे दिया जो हमने उनसे मांगा था.
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