भोपाल सृजनात्मक साहित्य के साथ प्रेमचंद ने उस समय की पत्रकारिता को भी दिशा दी थी। यदि कोई रचना कल्पना में तैर रही है और वह यथार्थ पर नहीं आती है, तो वह लम्बे समय तक जीवित नहीं रहती है। प्रेमचंद की रचनाएं अपने समय के यथार्थ से जुड़ी रही हैं। जो रचनाकार अपने समय की पदचाप और आने वाले समय की पदचाप को नहीं सुनते हैं, वह बड़ी रचना नहीं लिख सकते हैं और न ही बड़े रचनाकार बनते हैं। यह विचार वरिष्ठ लेखक डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ने प्रखर साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किए। कार्यक्रम का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ और विश्वविद्यालय के मुंशी प्रेमचंद साहित्य परिषद के संयुक्त तत्वावधान में किया गया।
डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि कोई भी रचनाकार दुनिया को उसी रूप में ग्रहण नहीं करते हैं, जैसी वह उन्हें मिली होती है। रचनाकार अपने रचनाधर्म का पालन करते हुए दुनिया को बदलने का प्रयास करता है। रचना कर्म नितांत व्यक्तिगत कर्म नहीं है, बल्कि यह सामाजिक कर्म है। प्रेमचंद ने घोषणा की थी कि साहित्य मनोरंजन की वस्तु नहीं है। मनोरंजन किसी भी कला का अंतिम लक्ष्य नहीं होता। डॉ. श्रीवास्तव ने बताया कि भारत का स्वाधीनता आंदोलन सबसे बड़ा जनांदोलन था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले इस जनांदोलन ने समूची दुनिया को प्रभावित किया। प्रेमचंद की एक कहानी का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अपनी मातृभूमि के लिए शहीद होने वाले व्यक्ति के रक्त की बूंद को प्रेमचंद ने सबसे अनमोल बताया था। डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में उनके समय की पीड़ा दिखाई पड़ती है। प्रेमचंद का साहित्य किसानों की करुण गाथा का महाकाव्य है। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य के साथ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। हंस का संपादन करते हुए उन्होंने अनेक संपादकीय लिखे। सांप्रदायिकता पर चोट करते हुए उन्होंने लिखा था कि सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई देकर आती है, उसे शायद अपने वास्तविक रूप में निकलने में लज्जा आती है। पूँजीवादी व्यवस्था के खतरों की ओर भी प्रेमचंद ने बहुत अधिक लिखा था। उन्होंने लिखा था कि पूँजीवादी व्यवस्था में मानवीय संबंध एक तरफ रख दिए जाते हैं। डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि प्रेमचंद ने सृजनात्मक साहित्य के साथ प्रेमचंद ने उस समय की पत्रकारिता को भी सार्थक दिशा दी। पत्रकारिता और कथा लेखन में बहुत समानता है।
‘समय के साखी’ की संपादक डॉ. आरती ने कहा कि आजादी की लड़ाई के योद्धा के रूप में भी प्रेमचंद को याद किया जाता है। प्रेमचंद एक बार गांधीजी की सभा में गए थे, वहाँ से उन्होंने लेखन को आजादी की लड़ाई को अपना हथियार बनाने का संकल्प ले लिया था। लेखन के प्रति प्रेमचंद की प्रतिबद्धता को बताते हुए डॉ. आरती ने कहा कि वह कहते थे- ‘मैं एक मजदूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं है।’ प्रेमचंद कहते थे कि कहानी का यह मॉडल हमने यूरोप से लिया है, लेकिन हमें इसमें भारतीय आत्मा की स्थापना करना है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव डॉ. श्रीकांत सिंह ने कहा कि प्रेमचंद ने हंस, माधुरी, मर्यादा और जागरण का संपादन किया था। उन्होंने स्त्री समानता के पक्ष में लगातार लेखन किया। डॉ. श्रीकांत ने कहा कि प्रेमचंद ने किसानों की समस्याओं पर जितना लिखा है, संभवत: उतना किसी और पत्रकार ने नहीं लिखा होगा। इस अवसर पर उन्होंने विश्वविद्यालय में मुंशी प्रेमचंद साहित्य परिषद की स्थापना की घोषणा की। परिषद में प्रो. संजय द्विवेदी को संयोजक और सहायक प्राध्यापक अरुण खोबरे को सह-संयोजक की जिम्मेदारी दी गई है। कार्यक्रम में विद्यार्थी सुमैया खान ने ‘जीवन की प्राणशक्ति’ और समक्ष जैन ने ‘ईदगाह’ कहानी का पाठ किया। धन्यवाद ज्ञापन मुंशी प्रेमचंद साहित्य परिषद के संयोजक प्रो. संजय द्विवेदी ने किया और संचालन विद्यार्थी दीप्ति तोमर ने किया। इस अवसर पर साहित्यकार कुमार अंबुज, मुकेश वर्मा, संतोष रंजन सहित शहर के गणमान्य नागरिक, विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एवं विद्यार्थी उपस्थित रहे।
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