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विश्व में सबसे अधिक भारत में लोग चुनते हैं आत्महत्या 10 सितम्बर को मनाया जाता है विश्व आत्महत्या निरोध दिवस

  • कोरोना काल में बढ़ गए हैं मानसिक बीमारियों के मरीज, एकांतवास से आई समस्या
  • काउंसलिंग से रोकी जा सकती है आत्महत्या की घटनाएं, पीड़ित व्यक्ति को अकेला नहीं छोड़ें

पूर्णियाँ(बिहार)एक होनहार छात्र नीट की तैयारी कर रहा था। वह कई बार प्रयास कर चुका था लेकिन उसका सलेक्शन नहीं हो पा रहा था। घर में एक भाई डॉक्टर था और पूरे परिवार को उसे भी डॉक्टर बनाना चाहता था। लॉकडाउन के कारण तैयारी नहीं हो पाई जिससे वह मानसिक रूप से टूट गया। डॉक्टर भाई ने बहुत समझाया और दबाव से बाहर लाने का प्रयास किया, लेकिन वह अकेलेपन में ऐसा जकड़ा की फंदे से लटककर जान दे दी। विश्व आत्महत्या निरोध दिवस से दो दिन पहले पटना में हुई यह घटना पहली नहीं है। प्रदेश में आए दिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं। तेजी से बढ़ते आत्महत्या के कारण भारत विश्व में पहले स्थान पर है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि कोरोना काल में समस्या बढ़ी है और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए काउंसलिंग के साथ हर परिवार को गंभीर होना होगा।

कोरोना काल में इसलिए बढ़ गए मामले:

मनोवैज्ञानिक मीनाक्षी भट्‌ट की मानें तो कोरोना काल में तेजी से मामले बढ़े हैं। काउंसलिंग के दौरान ऐसे बहुत सारे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें युवक या युवतियां आत्महत्या की ठान ले रही हैं। बड़ा कारण लॉकडाउन में अकेलापन और उसपर कोरोना संक्रमण का डर है। काउंसलिंग के दौरान ऐसे कई परिवारों को बर्बाद होने से बचाया गया है। सरकार ने भी ऐसे मामलों को कम करने के लिए काउंसलिंग सेंटरों की स्थापना की है और लोगों को जागरुक करने को कहा है। बात पटना की करें तो चार माह में चार हजार से अधिक मामले काफी गंभीर हालत में सामने आए जिसे काउंसलिंग के माध्यम से सही किया गया। मनोवैज्ञानिक मीनाक्षी का कहना है कि अगर परिवार संवेदनशील रहे और ऐसे बच्चों या बड़े लोगों पर नजर रखी जाए तो इससे बचा जा सकता है।

भारत में तेजी से बढ़ रहे मामले:

भारत वर्ष 1982 में भारत उन चंद देशों में शामिल हुआ जिन्होने अपने देश में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए एक कार्यक्रम चलाया। यह कदम भारत के अभी तक के लिए गए प्रगतिशील कदमों में से एक था। बिहार में भी काउंसलिंग के माध्यम से आत्महत्या की घटनाओं पर अंकुश लगाने का काम किया जा रहा है। इसके लिए सरकारी स्तर पर बड़ा प्रयास किया जा रहा है। मेडिकल कॉलेजों से लेकर अन्य बड़े अस्पतालों और सेंटरों में मनोचिकित्सकों की तैनाती कर लोगों के अंदर से अवसाद निकालने का प्रयास किया जा रहस है। लेकिन अभी लोगों में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता नही होने से घटनाएं हो रही हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे 2016 पर गौर करें तो मानसिक विकारों से प्रभावित लोगों की संख्या को गिनने के सबसे बड़े अभ्यास में पाया गया कि हर 10 में से एक व्यक्ति चिकित्सीय रूप से मानसिक विकार का अनुभव करता है। लगभग 90 प्रतिशत ऐसे व्यक्तियों को किसी प्रकार की देखभाल नहीं मिल पाती है, क्योंकि कहीं न कहीं वह यह स्वीकार नहीं करते कि वह मानसिक विसंगति के शिकार हैं। आत्महत्या की वार्षिक दर पर नेशनल क्राइम रिकसर्ड ब्यूरो के भी आंकड़े चौकाने वाले हैं। विश्व में आत्महत्या की दर 11.4 प्रति एक लाख हैं और भारत की आत्महत्या दर विश्व की आत्महत्या दर के बिलकुल करीब 10.6 प्रति लाख है।

आत्महत्या दुर्घटना नहीं विकार है:

मनोचिकित्सक डॉ मनोज कुमार का कहना है कि आत्महत्या कोई दुर्घटना नहीं हैं, यह मानसिक विकार की वह स्थिति हैं जिसपर कोई ध्यान नहीं देता। जरा सी देखभाल, अपनापन से इस विकार को सही किया जा सकता हैं। मानसिक विकार से सबसे ज्यादा प्रभावित देश में ही इसके प्रति जागरूकता की कमी है। इतना गंभीर स्वास्थ्य मुद्दा होने के बाद भी लोगों के बीच इसकी स्वीकारता बहुत कम है। यही अस्वीकारता कहीं न कहीं उन्हें अंधेरे की तरफ ले जा रही है। उनका कहना है कि आज के परिवेश में जहां लोगों की जीवनशैली, खानपान में बदलाव आया है, वहीं बढ़ते काम के दवाब, पारिवारिक क्लेश, मादक पदार्थो का प्रयोग, कहीं न कहीं व्यक्ति के अंदर मानसिक विकार पैदा कर रहा है। नींद न आना, चिड़चिड़ापन होना, काम में मन न लगना, अकेले रहना पसंद आना, सही से खाना न खा पाना आदि मानसिक विकार के लक्षण हैं। ऐसे में परिवार या साथ काम करने वाले को ध्यान देना चाहिए कि व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन हो गया है, तो उसे चिकित्सक के पास जरूर लेकर जाएं। मानसिक विकार की स्थिति में व्यक्ति को ताना नहीं मारना चाहिए बल्कि पता लगाना चाहिए कि उसके अंदर इस तरह का व्यवहार परिवर्तन क्यों हो रहा हैं।

कोरोना वायरस ने बढ़ाई मुश्किल:

डॉ मनोज कुमार का कहना है कि कोरोनावायरस महामारी के दौरान एक बात यह देखने में आ रही है कि लोग मानसिक समस्याओं, खासकर डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं। कोरोना संकट के इस समय में चिंता, तनाव और अवसाद की समस्या से कमोबेश हर उम्र के लोग जूझ रहे हैं। यहां तक कि बच्चों में भी तनाव और डिप्रेशन के लक्षण देखे जा रहे हैं। डिप्रेशन अगर बढ़ जाए तो एक गंभीर मानसिक बीमारी का रूप ले लेता है। इस बीमारी में व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव आने लगता है। वह अकेला रहने लगता है। किसी भी बात से उसे खुशी महसूस नहीं होती। वह हमेशा उदास और चिंता में डूबा रहता है। डिप्रेशन के शिकार व्यक्ति की भूख और नींद भी कम हो जाती है। अगर यह बीमारी बढ़ जाए तो व्यक्ति आत्महत्या भी कर सकता है। इसलिए डिप्रेशन के शिकार व्यक्ति को कभी भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।

ऐसे बचा सकते हैं जान:

डिप्रेशन के शिकार लोग कुछ ऐसी हरकत कर सकते हैं, जो घर के लोगों को बुरी लग सकती है। कई बार वे अपने सामान्य काम-काज तक नहीं निपटाते। अक्सर छोटी-छोटी बातों पर वे खीज जाते हैं और गुस्से में बात करते हैं। ऐसे में, उनके साथ धैर्य से पेश आना चाहिए। डिप्रेशन के शिकार लोगों के साथ गुस्से में बात नहीं करें। इससे उनकी समस्या बढ़ सकती है।
जो लोग डिप्रेशन की समस्या के शिकार होते हैं, वे लोगों के साथ घुलना-मिलना पसंद नहीं करते। वे अकेले रहना चाहते हैं। इससे उनमें नेगेटिविटी बढ़ती है। डिप्रेशन की समस्या से जूझ रहे लोगों के साथ बातचीत करनी चाहिए और उन्हें घरेलू कामकाज में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। अगर वे लोगों के बीच समय बिताते हैं, तो उनकी समस्या दूर हो सकती है। डिप्रेशन की समस्या कई बार कुछ तात्कालिक वजहों से पैदा होती है। लगी-लगाई जॉब का छूट जाना, करियर में बाधा आना या पार्टनर से ब्रेकअप हो जाना भी डिप्रेशन का कारण हो सकता है। तात्कालिक वजहों से होने वाला डिप्रेशन समस्या के समाधान के साथ अपने आप ठीक हो जाता है। इसलिए असली समस्या का पता कर उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। डिप्रेशन का मरीज चाहे कैसा भी हो, उसे कभी भी अकेले कमरा बंद कर मत सोने दें। डिप्रेशन के मरीज की मनोदशा कब कैसी होगी, इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। डिप्रेशन की समस्या जब गंभीर हो जाती है तो व्यक्ति के मन में आत्महत्या करने के ख्याल आने लगते हैं। अकेले रहने पर वह इसे अंजाम दे सकता है। इसलिए सतर्कता बरतना जरूरी है। डिप्रेशन मामूली हो ज्यादा, साइकेट्रिस्ट से संपर्क करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। मनोचिकित्सक मरीज से बातचीत कर उसकी हालत को बखूबी समझ जाता है और फिर उसके मुताबिक थेरेपी देता है। जरूरी नहीं कि डिप्रेशन के हर मरीज को दवा ही दी जाए। शुरुआती दौर में काउंसलिंग से भी काम चल जाता है। अगर बीमारी बढ़ जाए तो दवा देनी पड़ती है। आजकल ऐसी दवाइयां आ गई हैं, जिनसे यह समस्या पूरी तरह दूर हो जाती है। अगर इस समस्या को दूर नहीं किया गया तो व्यक्ति का मन खोखला हो जाता है और वह किसी काम का नहीं रह जाता।

बिहार में काउंसलिंग से अवसाद से वापस लाने का प्रयास:

सिविल सर्जन पटना डॉ राज किशोर चौधरी का कहना है कि ऐसे मरीजों को शुरुआती दौर में ही काउंसलिंग की जरुरत होती है। काउंसलिंग कर उन्हें ठीक किया जा सकता है। ऐसे मरीजों के बारे में जैसे ही पता चलता है उन्हें काउंसलिंग सेंटर रेफर कर दिया जाता है। लॉकडाउन और कोरोना के संक्रमण के कारण लोगों में ऐसी प्रवृति अधिक देखने को मिल रही है। अस्पतालों में निर्देश है कि ऐसे मरीजों को तत्काल मेडिकल कॉलेज या काउंसलिंग सेंटर रेफर किया जाए। आवश्यक दवाएं चलाई जाएं जिससे उन्हें अवसाद से बाहर निकाला जा सके। इसके साथ ऐसे मरीजों के परिवारों को भी काउंसलिंग सेंटर भेजा जाता है।