ऐसा माना जाता है कि कलाकार इस दोहरे समाज को आइना दिखाते हैं। मैं भी अलग-अलग कलाकारों के साथ मिलकर अपनी भागीदारी कुछ नाटकों के माध्यम से अलग-अलग गाँवों में जाकर लोगों को जागरूक करके निभाती रही हूँ। हमारे नाटक महिलाओं पर हिंसा, लड़का-लड़की की बराबरी या जहाँ भी कुछ ग़लत होता दिखे वहाँ दख़ल देना ज़रूरी है, ऐसे विषयों पर केंद्रित होते हैं। ये सब हम आम जनता के बीच जाकर बताते हैं।ऐसे बहुत से कलाकार होंगे जो कला के माध्यम से सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका अदा करते हैं। कहीं न कहीं मैं भी उनका हिस्सा हूँ। हालांकि मैं पत्रकारिता की छात्रा हूँ तो ज्यादातर सामाजिक मुद्दों पर लिखकर ही बदलाव लाने में अपना योगदान देती हूँ। जैसे ही कभी लोगों के बीच जाने का मौका मिलता है, तो मैं ज़रूर थिएटर और नुक्कड़ नाटकों के जरिए आ जाती हूँ। पहले शायद ज़्यादा समझ नहीं थी लेकिन अब उम्र बढ़ने के साथ-साथ समाज की परतें समझ आने लगी हैं। जहाँ भी काम करती हूँ कोशिश करती हूँ उनसे कुछ-न-कुछ ज़रूर सीखूं।
आप सोच रहे होंगे कि ये जो लोग हैं जो जागरूक करने आते हैं वो कितने अच्छे होंगे। एक दम पारदर्शी छवि वाले इंसान, बिल्कुल सुलझे हुए। लेकिन बता दूँ आपको आप यहाँ बिल्कुल ग़लत हैं। जैसे समाज का दोहरा चरित्र है वैसे ही कुछ कलाकारों का दोहरा चरित्र होता है। वो समाज को कुछ और बताते हैं ख़ुद उससे उलट होते हैं। यहाँ मैं सब कलाकरों की बात नहीं कर रही। मेरा लेख पढ़ने वाले ख़ुद से पूछें और आप समझ जाएंगे कि वो आप हो या नहीं।
राष्ट्रभाषा के उद्देश्य से हिंदी का विकाश
जब मैं प्रोग्राम करने मेरी टीम के साथ सोसाइटी में जाती थी। तब एक दिन एक गाँव में एक हादसा हुआ। जिस गाँव की चौपाल में हमें प्रोग्राम करना था उस चौपाल में औरतों का आना मना था। जब चौपाल में बैठे पुरुषों ने इस बात का विरोध किया, तो उस गाँव की एक बच्ची ने पुरुषों के विरोध के ख़िलाफ़ बोलने की कोशिश की। वहीं पीछे खड़े एक बुजुर्ग ने बहुत ही गंदी गाली उस बच्ची को दी। किसी ने भी उस बच्ची का साथ नहीं दिया और उस बात को वहीं दबाने की कोशिश की। जब हमने NGO वालों को बोला तो उन्होंने बात आगे न बढ़ाते हुए चौपाल से नीचे प्रोग्राम किया।
ऐसी जगह पर मैं भी अपने आप को बेसहारा महसूस करती हूँ, क्योंकि हमें फील्ड में जाने से पहले कुछ नियम के बंधनों में बांध दिया जाता है। जैसे हम किसी से कोई पर्सनल बात नही करेंगे, किसी के साथ फ़ोटो नहीं खिचवाएँगे, जो भी NGO के फील्ड टीचर्स हैं उनसे पूछे बगैर कोई भी कदम नहीं उठाएंगे। लेकिन जब भी हमने कुछ ग़लत होते देखा या हमें किसी ने ग़लत नज़रों से देखा या किसी ने अपशब्द बोले हमने तुरंत उन्हें आगाह किया। लेकिन अफ़सोस उन्होंने कोई कठोर क़दम नहीं उठाया या बोले तो कोई “दख़ल” नहीं दिया।
हमारी टीम में एक समलैंगिक(LGBT) भी था। उसके साथ काम करने का एक नया अनुभव रहा। बहुत कुछ जानने को मिला कि किस तरीके से उन्हें समाज का सामना करना पड़ता है। जो कॉर्डिनेटर उन्हें लेकर आई/आए, उनकी और हमारी जिम्मेदारी बनती थी उसको कम्फर्टेबल स्पेस देना। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इस प्रोजेक्ट से पहले 9 दिन की वर्कशॉप हुई थी, जिसमें हमारी टीम की तरफ से मेरे समलैंगिक(LGBT) दोस्त को वार्ता के लिए चुना गया। क्योंकि उस समय हमारे पास कोई और अच्छा वार्ताकार नहीं था। उसने भी टीम को संभालते हुए अच्छा किया, लेकिन NGO किसी मेंबर को वहां भी दिक्कत हो गई कि “इसे बदलो, इसकी आवाज़ पर हँसेंगे लोग।”उसके बाद भी जब हम फील्ड में गए वहां भी हमारी टीम में बहुत बार ऐसे मज़ाक हो जाते थे जो अक्सर हमारे समाज में समलैंगिक(LGBT) के साथ होते हैं; जैसे “टू इन वन”। जब सब साथ रह रहे थे और उसकी तरफ़ किसी को सोने के लिए कहा जाता था तो सब लड़को के चेहरों पर sarcastic स्माइल आती थी और वे एक-दूसरे को बोलते थे कि तू सोजा तू सोजा।
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यहाँ गलती उसकी भी है। जब वे लोग उसे बोलते थे तभी उसको उनको कहना था लेकिन वो ये मान बैठा है कि ये तो अक्सर उसके साथ होता रहता है। वह खुद भी उनके मज़ाक का हिस्सा बन जाता क्योंकि उसे आदत हो गई है। हालांकि उसे बुरा तो लगता है लेकिन सोच लेता है कि अगर मैं ज्यादा बोलूंगा तो फिर वो ज़्यादा मज़ाक बनाएंगे। ये सब बातें जब पूरी टीम के सामने भी हुई तो उसे कहा गया कि “पहली बात तो ये जब ये सब बातें हुईं तुमने हमें बताया क्यों नहीं और तुम पहली बार थोड़ा न हमारे साथ काम कर रहे हो जो ऐसे बोल रहे हो।” इसपर मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि हाँ, हो सकता है उसने आप लोगों के साथ काम किया हो। हो सकता है ये चीजें पहले भी हुई हो लेकिन किसी ने ध्यान न दिया हो, लेकिन मेरा ध्यान गया मैंने वो सब बातें, वो सब हरकतें देखी और लिख दिया। अब वो भी पढ़ रहे होंगे। तो आप लोग कृपया करके इन सब बातों को जहन में उतारें, क्योंकि “जेंडर इक्वलिटी”, जिसका हम ढ़ोल पीट रहे हैं, ख़ुद सोचो आप अपनी ज़िंदगी में उसपर कितना अमल कर रहे हैं।
इस पूरी मुहिम से पहले 9 दिन की वर्कशॉप हुई, जिसमें 60 कलाकार शामिल थे। उन सब में सांगी, गायक, नाटककार, पढ़ने वाले स्टूडेंट्स शामिल थे। वहां हमें नाटक तैयार करने से पहले रूपरेखा बताई गई। जेंडर इक्वलिटी, औरतों पर हो रही हिंसा, लड़के-लड़कियों में भेदभाव जैसे विषयों को बहुत ही बुद्धिजीवी (इंटलेक्चुअल) स्तर की बातों के माध्यम से समझाया गया। ख़ैर अच्छी किताबें और अच्छी बातें हर किसी को इतनी जल्दी समझ नहीं आती। उन्हीं दिनों मेरी एक लड़की दोस्त को एक अधेड़ उम्र के कलाकर साथी ने उसके कान में आकर कहा कि “फ्रेंडशिप करेगी।” हालांकि अगर देखा जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है इस शब्द में, लेकिन व्यक्ति की मानसिकता को देखकर वो गलत था। वो ये सब कहने के लिए इसीलिए सहज हो पाया, क्योंकि वो बीड़ी-सिगरट पी लेती है और सबसे हँस कर बात कर लेती है। इससे बहुत से लोगों को लगता है कि लड़की अवेलेबल(उपलब्ध) है।
नो डाउट वर्कशॉप बहुत अच्छी थी, लेकिन अफ़सोस वहाँ मौजूद 60-65 लोगों में से मात्र 5 लोग ही ऐसे होंगे, जो इस वर्कशॉप का मतलब समझ पाए। समाज में बदलाव की ये मुहिम लेकर जाने वालों को पहले अपनी मानसिकता और विचार पर काम करने की आवश्यकता थी और अभी भी है, क्योंकि जो हम अपनी निजी जिंदगी में होते हैं कहीं न कहीं लोगों से बात करते समय वो सब दिख जाता है। बदलाव की मुहिम से जुड़े एक-एक व्यक्ति के पास लोगों के हर तरह के सवाल का जवाब होना ज़रूरी है। काश जो बातें किसी भी वर्कशॉप में सिखाई जाती हैं उनपर अमल हो और वाकई में कलाकार इससे सीखे तो आधी मुहिम तो यहीं सफल हो जाए। यह सांस्कृतिक बदलाव की मुहिम सिर्फ़ पैसे कमाने के लिए नहीं है, बल्कि असल में बदलाव करने की है। लेकिन अफ़सोस यह क्षेत्र अब एक व्यापार हो गया है।
लेखक:- ज्योति सिंह जेनी एम.एस.सी. (पत्रकारिता और जनसंचार कुरुक्षेत्र विश्वविधयालय कुरुक्षेत्र)
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