Home

परिवार का साथ है तो दो रूपये कम कमाने का नहीं होता मलाल

संकट के दौर में घर लौटने के बाद कभी मन में नहीं आया परदेश जाने का ख्याल
शहर की गलियों में घूम-घूम कर सब्जी बेचने को कारोबार के रूप में अपनाया, हो जाती है अच्छी कमाई

अररिया(बिहार)वैश्विक महामारी के इस दौर में दैनिक जीवन में हमने कई बदलाव को सहजता के साथ अपनाया है. कोरोना संकट के दौर कई लोगों को अपने मूल रोजगार से हाथ धोना पड़ा. औधोगिक शहरों में बड़े कल कारखानों के अचानक बंद हो जाने के कारण हजारों की संख्या में वहां काम करने वाले दैनिक मजदूरों को वापस अपने घर लौटने के लिये मजबूर होना पड़ा. वर्षों से बसे बसाये रोजगार के अचानक खत्म हो जाने के कारण कई लोग को निराशा हाथ लगी. तो हमारे समाज में कई ऐसे उदाहरण भी सामने आये. जिन्होंने इस चुनौतिपूर्ण समय को अपने मेहतन व लगन के दम पर बेहतर अवसर में तब्दील कर डाला. इस कड़ी में शहर के वार्ड संख्या 13 निवासी 45 वर्षीय रमेश प्रसाद गुप्ता का नाम भी शामिल है. रमेश बीते 20 सालों से अपने परिवार के जीविकोपार्जन के लिये दिल्ली के पास गाजियाबाद में रहकर मजदूरी का काम करते थे. कोरोना संकट के दौर में जब रोजी रोजगार पर संकट के गंभीर बादल मंडराने लगे तो उन्होंने अपने घर का रूख किया. गंभीर चुनौतियों को झेलते हुए वह किसी तरह सही सलामत अपने घर तो पहुंच गये. लेकिन यहां पहुंचने के कुछ दिन बाद ही परिवार के भरण-पोषण से जुड़ी गंभीर समस्या उनके सामने मूंह बाये खड़ी हो गयी.
मुश्किल दौर में भी नहीं छोड़ी बेहतरी की उम्मीद:
रमेश बताते हैं कि वर्षों तक जिस रोजगार से जुड़े रहे वो रोजगार अचानक छूट चुका था. बिना किसी रोजगार के घर पर पत्नी, दो बेटे व एक बेटी के भरण पोषण का काम मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा प्रतीत हो रहा था. लेकिन इस मुश्किल दौर में भी उन्होंने बेहतरी की उम्मीद को कभी नहीं छोड़ा. अपना हौसला बनाये रखा. संक्रमण का दौर जब चरम पर था. तो शहर के अधिकांश इलाके कंटेनमेंट जोन में तब्दील हो चुके थे. जहां सभी को आने जाने की इजाजत नहीं हुआ करती थी. सिर्फ जरूरी सेवाओं से जुड़े लोगों को ही अंदर जाने की छूट हुआ करती थी. उन्होंने इसे अपने लिये एक अवसर के तौर पर देखा. घर पर थोड़े बहुत पैसे बचे थे. उससे एक ठेला खरीदा व बेहद कम पूंजी से सब्जी का कारोबार शुरू कर दिया. शहर की गलियों में घुम-घुम कर वह सब्जी बेचने लगे. शुरू में थोड़ा अजीब तो जरूर लगा लेकिन थीरे-थीरे सभी चीजें सामान्य होती गयी.
चुनौतीपूर्ण था कंटेनमेंट जोन में सेवा उपलब्ध कराना
उस दौर में कोरोना के नाम से ही लोगों के हाथ-पांव फूलने लगते थे. हर तरह संक्रमण का संभावना हर तरफ मौजूद थी. ऐसे वक्त में कंटेनमेंट जोन में सेवा उपलब्ध कराना खासा चुनौतीपूर्ण था. लेकिन वहां व्यवसाय के लिहाज से बेहतर संभावनाएं मौजूद थी. परिवार चलाने के लिये पैसों की सख्त दरकरार थी. ऐसे में निजी तौर पर संक्रमण से बचाव संबंधी उपायों पर अमल करते हुए लोगों तक जरूरी चीजों की आपूर्ति बनाये रखी. काम के दौरान रमेश ने लोगों के बीच आपसी दूरी का ध्यान रखा, तो थोड़े-थोड़े समयांतराल पर हाथों की सफाई करते हुए अपना व अपने परिवार वालों का संक्रमण के खतरों से लगातार बचाव करते रहे. समय पर जरूरतमंद लोगों तक बेहतर सेवा उपलब्ध कराने के कार्य को अपना लक्ष्य मानते हुए में सब्जी सहित अन्य खाद्य सामग्री बेचने के काम में जूते रहे. इससे लोगों का काफी प्यार और स्नेह भी प्राप्त हुआ. जो उनके लिये किसी अमूल्य धरोहर से कम नहीं.
अब नहीं आता कमाने के लिये परदेश जाने का ख्याल:
रमेश शहर की गलियों में घूम-घूम कर सब्जी बेचने के कार्य को अपने स्थायी रोजगार के तौर पर अपना चुके हैं. वह बताते हैं कि अब कभी गलती से भी कमाने की नियत से उनके मन में परदेश जाने का ख्याल नहीं आता. रमेश कहते हैं कि हर दिन इस रोजगार से लगभग 500 से 700 के बीच कमाई हो जाती है. अलग बात है कि परदेश की तुलना में ये थोड़ा कम है. लेकिन परिवार वालों का साथ है तो दो रुपये कम कमाने का कोई मलाल नहीं होता. पूरे दिन काम के बाद जब वह घर लौटते हैं तो बीबी, बाल-बच्चों का चेहरा देखते ही दिन भर की थकान मिट जाती है. अब लगता है कि कोरोना संकट का काल जीवन में साकारात्मक बदलाव लाने के लिहाज से मेरे लिये बेहद महत्वपूर्ण राह है.