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हम हिन्दू हों या मुसलमान, हम एक ही नाव पर हैं सवार, हम डूबेंगे तो साथ और उबरेंगे तो साथ

हिन्दू मुस्लिम एकता के मसीहा थे मौलाना साहब:

सारण जिला परिषद के प्रथम अध्यक्ष पद को किया था गौरवान्वित:

धर्मेन्द्र कुमार रस्तोगी,
स्वतंत्र पत्रकार

छपरा(बिहार)हिन्दू मुस्लिम एकता के मसीहा और कौमी एकता के प्रतिक माने जाने वाले मौलाना मजहरुल हक़ साहब की जयंती पर आज सारा देश उन्हें याद कर रहा है। महात्मा गांधी के सहयोगी, होमरूल आन्दोलन, असहयोग के नेता व सदाकत आश्रम के संस्थापक हक़ साहब का व्यक्तित्व राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कौमी एकता को संगठित कर देश की आज़ादी के लिए आंदोलन की एक नई रूप रेखा तैयार करने में मौलाना साहब की सकारात्मक भूमिका रही है। हालांकि इनकी कर्मस्थली बिहार के प्रमंडलीय मुख्यालय सारण जिला ही रही है। क्योंकि सारण या चंपारण की यात्रा पर निकलनी हो या फ़िर आज़ादी की लड़ाई के लिए किसी तरह का बैठक करनी हो। हक साहब सारण की धरती का ही चुनाव किया करते थे।

धर्मेंद्र रस्तोगी,स्वतंत्र पत्रकार

रिश्तेदारों के द्वारा दान में मिली हुई जमीन पर बनाया था अपना आशियाना:
मौलाना मजहरुल हक साहब का जन्म 22 दिसंबर 1966 को पटना जिले के मनेर थाना क्षेत्र अंतर्गत ब्रह्मपुर गांव निवासी शेख अमूदुल्ला के तीन बच्चों में इकलौते पुत्र के रूप में हुई थी। जबकिं दो बहनें भी थी। जिनका नाम गफरुनीषा और कानीज फातमा था। उनके पिता की पहचान एक अमीर जमीनदार के रूप में थी। मौलाना मजहरुल हक पर 27 दिसंबर 1929 को पक्षाघात का हमला हुआ था। जबकिं 02 जनवरी 1930 को वह परलोक सिधार गए और अपने मकान के बगीचे के एक कोने में उन्हे दफन किया गया था। सिवान (तत्कालीन सारण जिला) के हसनपुरा प्रखंड के फरीदपुर गांव के रिश्तेदारों के द्वारा उन्हें बहुत से भूमि दान में दी गई थी। दान में मिली जमीन पर एक घर का निर्माण कराया और उसका नाम “आशियाना” रखा। जिस कारण वर्ष 1900 के बाद से यहीं पर रहने लगे थे।आशियाना होने के बाद वर्ष 1927 में पंडित मोतीलाल नेहरु, 1928 में श्रीमती सरोजनी नायडू, पंडित मदन मोहन मालवीय, के.एफ. नरिमन, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने फरीदपुर में इनके घर ‘आशानिया’ का दौरा किया।

इंग्लैंड जाने के दौरान महात्मा गांधी जी हुई थी जान पहचान:
मौलाना मजहरुल हक साहब की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। वह 1876 में पटना कॉलेजिएट में दाखिल हुए और 1886 में मैट्रिक पास करके पटना कॉलेज में नाम लिखवा लिया था। मगर 1887 में केनिंग कॉलेज में दाखिला लेने के लिए लखनऊ चले गए। और वहीं पर उनके दिल में इंग्लैंड जाने का शौक पैदा हुआ। उस जमाने में बहुत से युवक यूरोप जा रहे थे। मगर घर वालों से आज्ञा मिलने की आशा नहीं थी। इसलिए वह वगैर किसी को बताए चुपचाप ही मुंबई पहुंच गए और हाजियों के जहाज में बैठकर अदन पहुंच गए। यहां उनके सारे पैसे खत्म हो गए थे। मजबूरन उन्होंने अपने पिता को सूचना दी और उनसे मदद मांगी।उनके पिता ने उनको रुपये भेज दिए और वह लंदन पहुंच गए। यह एक संयोग की ही बात है कि इस जहाज में महात्मा गांधी भी यात्रा कर रहे थे। जहाज में दोनों में अच्छी मित्रता हो गई, जो हमेशा कायम रही। वह 05 दिसंबर 1888 को लंदन पहुंचे थे और तीन साल तक इंग्लैंड में रहकर बैरिस्टरी की डिग्री लेकर भारत वापस आए और पटना में प्रैक्टिस करने लगे। एक साल बाद वह यूपी जूडिशियल सर्विस में शामिल हो गए। मगर जब उन्होंने देखा कि अंग्रेज अफसर अपने अधीनस्थ भारतीय कर्मचारियों के साथ अच्छा बरताव नहीं कर रहे है और उन्हें नीची निगाह से देखते हैं, तो उन्होंने 1896 में त्यागपत्र दे दिया और छपरा चले आए व यही पर प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी।

सारण जिला परिषद के प्रथम अध्यक्ष पद को सुशोभित करने का मिला था सौभाग्य:
जन्म तो पटना ज़िलें के मनेर थाना क्षेत्र अंतर्गत ब्रह्मपुर में हुआ था। लेकिन उनकी कर्मस्थली सारण ही था। क्योंकि वर्ष 1898 में पश्चिम बंगाल से मुंसिफ की नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद व्यवहार न्यायालय छपरा में वकालत करते हुए उन्होंने छपरा नगर पालिका के उपाध्यक्ष और सारण जिला परिषद के पहले अध्यक्ष पद को सुशोभित करने का भी काम किया था।

छपरा प्रवास के दौरान हक मंजिल में था आशियाना:
प्रमंडलीय मुख्यालय सारण के छपरा शहर के रामराज्य मोड़ (महमूद चौक) स्थित हक मंजिल में ही मौलाना साहब का आशियाना था जब कभी छपरा आगमन होता था तब वे इसी मकान में रहते थे। इसी मकान में मौलाना मजहरुल हक अरबी फ़ारसी उर्दू यूनिवर्सिटी का स्टडी सेंटर का संचालन किया जाता है। हक साहब की शहादत के बाद महात्मा गांधी ने कहा था- ऐसे व्यक्ति की गैर मौजूदगी सदा ही खटकेगी। देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद के पहल पर हक साहब की याद में देश का एकमात्र स्मारक का निर्माण किया गया था। जो छपरा शहर में एकता भवन के नाम से जाना जाता है। जिसकी स्थिति जर्जर बनी हुई हैं। उनके नाम पर एक सड़क का निर्माण भी कराया गया है। पिछले पांच दशकों से छपरा में होते आ रहे आल इंडिया मुशायरा का आयोजन विगत कई वर्षों से नही हो रहा हैं। जिस तरह से मौलाना मजहरुल हक साहब ने कौमी एकता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया वह आज भी एक मिशाल के रूप में स्थापित हैं।

हक साहब ने की थी सदाकत आश्रम की स्थापना:
हक़ साहब ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर हिन्दू, मुश्लिम एकता को बरक़रार रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बिहार की राजधानी पटना में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के बिहार इकाई सदाकत आश्रम जो आज कांग्रेस का प्रदेश मुख्यालय है। उसकी स्थापना हक़ साहब ने अपनी जमीन दान देकर की है। जिस अखंड भारत की कल्पना की थी जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया वह अखंडित नहीं रह सका और भारत के दो टुकरे हो गए। हक साहब अपने जीवन के अंतिम दिनों में बिल्कुल साधु के तरह हो गए थे। उन्होंने लंबी दाढ़ी और मामूली से कपड़े पहनने लगे थे। मानों सदा जीवन उच्च विचार उनके शरीर में रग-रग समाई हुई हो। तत्कालीन सारण लेकिन अब सिवान जिले के हसनपुरा प्रखंड अंतर्गत फरीदपुर गांव चले आए और वहीं अपने मकान में रहने लगे थे। इसी मकान का नाम उन्होंने “आशियाना” रखा था। गांधी जी ने उनके जीवन के बारे में लिखा है कि – “वह हमारे मतभेदों से तंग आकर दुनिया से अलग-थलग हो गए थे। वह बहुत बड़े देश प्रेमी, सच्चे मुसलमान और बहुत बड़े दार्शनिक भी थे। पहले वह बड़े रईसाना ठाठ-बाट से रहा करते थे, लेकिन जब असहयोग आंदोलन चला तो उन्होंने सब कुछ छोड़ कर फकीरी का जीवन अपना लिया। उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नही था। उनके द्वारा स्थापित किया गया सदाकत आश्रम भारत के दोनों धर्मों को मिलाने का काम कर सकता है।

सामाजिक सुधारों के लिए संघर्षरत रहे मौलाना साहब:
मजहरुल हक साहब बिहार में शिक्षा के अवसरों और सुविधाओं को बढ़ाने तथा अनिवार्य रुप से निःशुल्क प्राइमरी शिक्षा लागू कराने को लेकर काफ़ी लंबे अरसे तक संघर्ष करते रहे। जिस घर में उनका जन्म हुआ था उस घर को उन्होंने एक मदरसे और एक प्राथमिक विद्यालय को स्थापित करने के लिए दान तक दे दिया था। ताकि एक ही परिसर में हिन्दू और मुस्लिम बच्चों की शिक्षा-दीक्षा हो सके। देश की स्वाधीनता और सामाजिक कार्यों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने पर्दा प्रथा के खिलाफ जनचेतना जगाने का प्रयास किया था। देश की गंगा-जमुनी की संस्कृति और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल हिमायती थे। उनका कथन: ‘हम हिन्दू हों या मुसलमान, हम एक ही नाव पर हैं सवार। हम उबरेंगे तो साथ, डूबेंगे तो साथ’