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लोक कवि भिखारी ठाकुर जयंती विशेष

भोजपुरी के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करने वाले मल्लिक जी का परिवार झेल रहा है गरीबी का दंश, पालनहार का हैं इंजतार

भिखारी ठाकुर एक व्यक्ति नही बल्कि संस्था के रूप में हैं स्थापित

धर्मेंद्र कुमार रस्तोगी,स्वतंत्र पत्रकार

छपरा(बिहार)लोक संस्कृति के वाहक कवि व भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की 136 वीं जयंती मनाई जा रही है लेकिन क्या कोई यकीन कर सकता है कि भक्तिकालीन भक्त कवियों व रीत कालीन कवियों के संधि स्थल पर कैथी लिपि में कलम चलाकर फिर रामलीला, कृष्णलीला, विदेशिया, बेटी-बेचवा, गबर घिचोर, गीति नाट्य को अभिनीत करने वाले लोक कवि भोजपुरी के शेक्सपीयर जनकवि भिखारी ठाकुर का परिवार आज भी चीथड़ो में जी रहा हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी भोजपुरी के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करने वाले मल्लिक जी का परिवार गरीबी का दंश झेल रहा है। यह सच है कि जयंती या पुण्यतिथि के अवसर पर कुछ गणमान्य अधिकारी एवं राजनेता पहुंचते हैं, कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, लेकिन यह सब मात्र श्रद्धांजलि की औपचारिकताओं तक ही सिमट कर रह जाता हैं। न तो ऐसे किसी आयोजन में भिखारी ठाकुर के गांव वासियों का दर्द सुना जाता है और ना ही उनके दर्द की दवा का प्रबंध करने की बात होती है। कुतुबपुर दियारा स्थित मल्लिक जी का खपरैल व छप्परनुमा निर्मित जीर्ण-शीर्ण घर आज भी अपने जीर्णोद्धार की बाट जोह रहा है। यही से भिखारी ठाकुर ने काव्य सरिता प्रवाहित की थी और उनके प्रसिद्धि की गूंज आज भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुनाई देती है।

दो वक्त की रोटी के लिए लड़ रहा सुशील:
भिखारी ठाकुर के प्रपौत्र सुशील कुमार आज भी एक अदद चतुर्थ श्रेणी की नौकरी के लिए मारा-मारा फिर रहा है। दर्द भरी जुबां से सुशील बतातें हैं कि अगर मेरे निकटतम संबंधी नहीं रहते तो शायद उच्च शिक्षा ग्रहण करना मेरे नसीब में नही होता। हालांकि पढ़ाई तो पूरी हो चुकी है लेकिन अभी दो वक्त की रोटी के लिए लड़ाई लड़ रहा हूं। समाहरणालय परिसर में चतुर्थ श्रेणी के रूप में सेवा करने के लिए सारण के जिलाधिकारी एवं स्थानीय विधायक और सांसद से लेकर मंत्रियों तक का दरवाजा खटखटाया लेकिन अभी तक मुझ जैसे ग़रीब बेरोजगार युवक की नौकरी कब तक मिलेगी। इससे बुरा हाल तो यह है कि स्थानीय या देश स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन तो होता है लेकिन मुझें या किसी अन्य परिजनों को बुलाया तक नही जाता है।

गरीबी का दंश झेल रहा भिखारी ठाकुर का परिवार:
टिमटिमाते दीपक की लौ से समाज में व्याप्त कुरीतियों और सम सामयिक समस्याओं को उजागर करने का महत्ती प्रयास भिखारी ठाकुर ने किया था। और आज तक उनकी लौ में सभी लोग राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं। लेकिन दीपक तले अंधेरे वाली कहावत चरितार्थ साबित हो रही है। दबी जुबां से दिल की बात बाहर आती है कि भिखारी ठाकुर के नाम पर कई लोग वृद्धा पेंशन एवं सुख सुविधा का लाभ तक उठा रहे हैं। जबकिं उनके परिवार को हर तरह की सुख सुविधाओं की बेहद इंतज़ार है। एक ओर जहां सुशील जीवकोपार्जन के लिए दर-दर की ठोकरे खा रहा है। वही उनकी पुत्रवधू व सुशील की मां गरीबी का दंश झेल रही है। भिखरी ठाकुर के इकलौते पुत्र शीलानाथा ठाकुर थे। जो भिखारी ठाकुर के नाट्य मंडली व उनके कार्यक्रमों से कोई रूची नहीं थी। उनके तीन पुत्र राजेन्द्र ठाकुर, हीरालाल ठाकुर व दीनदयाल ठाकुर भिखारी की कला को जिंदा रखे हुए थे। नाट्य मंडली बनाकर जगह-जगह कार्यक्रम करने लगे। लेकिन इसी बीच उनके बाबू जी गुजर गये। फिर पेट की आग तले वह संस्कार दब गई। अब तो राजेन्द्र ठाकुर भी नहीं रहे। फ़िलहाल भिखारी ठाकुर के परिवार में उनके प्रपौत्र सुशीला कुंवर, तारा देवी, सुशील ठाकुर, राकेश ठाकुर, मुन्ना ठाकुर सहित कई अन्य बच्चें रहते हैं। वह भी जीर्ण-शीर्ण स्थिति वाले कच्चे मकान में रहने को मजबूर है भिखारी ठाकुर का परिवार।

मूलभूत सुविधाओं से वंचित गांव की व्यथा अलग:
साहित्य और संस्कृति के पुरोधा, लोक साहित्य के रचनाकार, भोजपुरी के शेक्सपीयर का गांव कुतुबपुर दियरा काश, स्थानीय सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूढी के सांसद ग्राम योजना के तहत गोद में होता तो शायद पुरोधा के इस गांव को तारणहार की प्रतिक्षा नहीं होती। हालांकि जिला मुख्यालय से उनके गांव की ओर जाने के लिए राजद व जदयू की संयुक्त सरकार द्वारा गंगा नदी पर पुल का निर्माण तो करा दिया गया है लेकिन पुल से उतरने के बाद उनके घर तक जाने के लिए अभी भी वही गद्दों में तब्दील गंवई सड़क ही मिलता हैं। जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर ( गंगा उस पार ) स्थित कुतुबपुर दियरा गांव आज तक मूलभूत सुविधाओं से मरहूम नजर आता हैं। क्योंकि कार्यक्रमों की रौशनी, प्रशासन या राजनेताओं का आश्वासन उस गांव को रौशन नहीं कर सका हैं।

भिखारी ठाकुर के घर तक जाने के लिए पक्की सड़क तक मयस्सर नही:
जयंती समारोह, श्रद्धांजलि सभा और सांस्कृतिक समारोह भी कुछ लोगों तक सीमट कर रह गया है। आस-पास के दर्जनों गांव, हजारों की बस्ती, बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए तीन पंचायतों में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए एक मात्र अपग्रेड उच्च विद्यालय हैं। वह भी प्राथमिक विद्यालय से अपग्रेड हुआ है। आगे की पढ़ाई के लिए गंगा नदी इस पर छपरा आना होता है। कुछ बच्चे तो आ जाते हैं, लेकिन बच्चियां जाए तो जाए कहां। कुतुबपुर गांव से सटे कोट्वापट्टी रामपुर, रायपुरा, बिंदगांवा व बड़हरा महाजी अन्य पंचायतें हैं। स्थानीय लोगों के लिए जीविकोपार्जन का मुख्य आधार कृषि ही है। हालांकि अब गंगा नदी इनके खेत व खलिहान को निगलने लगी है। 75 फीसदी भूमिखंड में सरयू व गंगा नदी का राग है। टापू सा दिखने वाला सदृश गांव है। बाढ़ की तबाही अलग से झेलना पड़ता है। प्रत्येक साल किसानों को परवल की खेती में बाढ़ आने के बाद लाखों-करोड़ों रूपयों का नुकसान उठाना पड़ता है। सुविधा के नाम पर इस गांव के लोगो के लिए पक्की सड़क तक मयस्सर नहीं है।

विदेशिया नाटक में नारी की विरह का सजीव चित्रण:
लोक कलाकार भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता आज भी हैं। लोक कलाकार भिखारी ठाकुर जो समाज के न्यूनतम नाई वर्ग में पैदा हुए थे। अपनी नाटकों, गीतों और अन्य कलाओं के माध्यमों से समाज के अंतिम पायदान पर रहने वाले आम लोगों की व्यथा को कथा के रूप में वर्णन किया है। अपनी प्रसिद्ध रचना विदेशिया में जिस नारी की विरह का वर्णन एवं सामाजिक प्रताड़ना का उन्होंने सजीव चित्रण किया है। वही नारी आज साहित्यकारों एवं समाज विज्ञानियों के लिए स्त्री-विमर्श के रूप में चिंतन एवं अध्यन का केन्द्र-बिन्दु बनी हुई है। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विषमता औऱ भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। इस तरह उन्होंने देश के विशाल भेजपुरी क्षेत्र में नवजागरण का संदेश फैलाया।

राहुल सांकृत्यायन ने कहा था अनगढ़ हीरा:
बेमेल-विवाह, नशापान, स्त्रियों का शोषण एवं दमन, संयुक्त परिवार के विघटन एवं गरीबी के खिलाफ जीवनपर्यन्त विभिन्न कला माध्यमों के द्वारा संघर्ष करते रहे। यही कारण है कि इस महान कलाकार की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। कभी महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने जिन्हें साहित्य का अनगढ़ हीरा एवं भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा था उस भिखारी ठाकुर का जन्म सारण जिलांतर्गत सदर प्रखंड के कुतुबपुर दियारा में 18 दिसंबर 1887 को हुआ को हुआ था। उनके पिता का नाम दलश्रृंगार ठाकुर एवं माता का नाम शिवकली देवी था। भिखारी ठाकुर पूरी तरह से निरक्षर थे। लेकिन उनका साहित्य-साधना बेमिसाल थी। रोजी-रोटी कमाने के लिए पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर नामक स्थान पर गये, जहां बंगाल के जातरा पाटियों द्वारा रामलीला के मंचन से काफी प्रभावित हुए और उसी से प्रेरणा लेकर उन्होंने नाच पार्टी का गठन किया था।