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बिहार की पहली भोजपुरी फिल्म


मनोरंजन:भोजपुरी का प्राचीन इतिहास- बिहार के बक्सर के निकट दुमरावगंज , जिसकी प्राचीन काल में राजधानी थी भोजपुर , इसे उज्जैयिनी से आए परमार राजपूतों ने अपने पूर्वज राजा भोज की स्मृति में बसाया था । इस नाम के कारण यहां बोली जाने वाली भाषा का नाम भोजपुरी पड़ा । बिहार के 10 , पूर्वी उत्तर प्रदेश के 25 जिले के साथ झारखंड तक विस्तृत और नेपाल के 7 तराई जिलों में बोली जाने वाली भाषा भोजपुरी है । आदर्श भोजपुरी शाहबाद , छपरा ,बलिया , गाजीपुर में प्रचलित है। पश्चिमी भोजपुरी का फैलाव आजमगढ़ ,जौनपुर ,फैजाबाद का पूर्वी भाग , बनारस , मिर्जापुर तक है। नागपुरिया भोजपुरी छोटा नागपुर से रांची तक बोली जाती है। जबकि देवरिया , गोरखपुर ,बस्ती ,संत कबीर नगर में भोजपुरी का अपना स्वरूप है।
वर्ष 2004 में भोजपुरांचल प्रदेश का मानचित्र तैयार हुआ। इसमें रोहतास भभुआ बक्सर भोजपुर सारण सिवान गाजीपुर बलिया मऊ आजमगढ़ जौनपुर बनारसी मिर्जापुर चंदौली सोनभद्र गोपालगंज बस्ती महाराजगंज सिद्धार्थनगर मानचित्र में दिखाया गया । उस समय बिहार झारखंड उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश विभाजित कर भोजपुरांचल राज्य घोषित करने की मांग जोर पकडी थी । बिहार के 10 ,झारखंड के पांच ,मध्य प्रदेश के एक ,उत्तर प्रदेश के 10 ,छत्तीसगढ़ के 5 जिलों सहित मुंबई के अंधेरी एवं राजेश्वरी , असम के चाय बागान ,कोलकात्ता के भोजपुरी परा ,25 करोड़ लोगों की भाषा भोजपुरी 2 लाख वर्ग किलोमीटर के विशाल क्षेत्र में फैली हुई है ।
पूरे विश्व में 5 करोड़ से ज्यादा लोग भोजपुरी जानते हैं। विदेशों में मारिशस ,घना ,वेस्ट इंडीज , इंडोनेशिया ,सुरीनाम ,दक्षिण अफ्रीका , लैटिन अमेरिका , नेपाल ,केनिया ,वर्मा , गोयाना , फिजी
त्रनिडाड ।
भोजपुरी सिनेमा बिहार के 365 , उत्तर प्रदेश के 400 ,महाराष्ट्र के 35 सिनेमा हॉल में दिखाई जाती है
बिहार की पहली भोजपुरी फिल्म निर्माण की कहानी
बिहार की पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मैया तोहरे पियरी चढ़ाईबो के निर्माण के पहले निर्माता निर्देशक अभिनेता कथाकार संवाद लेखक नाजिर हुसैन के बारे में जानना जरूरी है । इनका वास्तविक नाम नासिर खान है। इनका जन्म 3 फरवरी 1921 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के दिलदार नगर में हुआ । साल 1948 से लेकर 19 96 तक फिल्मों में सक्रिय रहे । इनके बेटे मंसूर खान व मुजाहिद खान हैं । नजीर हुसैन आजाद हिंद फौज के सांस्कृतिक इकाई में नौकरी करते थे । आजादी के बाद इनकी नौकरी छूट गई ।वे कोलकाता जाकर मजदूरी करने लगे ।इनके पूर्व साथी भी मिल गए हैं , जो काम के अभाव में निरास बैठे थे ।नजीर के मन में विचार आया की एक नाटक का मंचन किया जाए , उससे जो आमदनी होगी , उसे वापस में बांट लिया जाए । नाटक उनके निजी जीवन पर केंद्रित थी । जिसका शीर्षक दिया गया सिपाही का सपना । नजीर इसके लेखक निर्देशक बने ।नाटक का बड़े जोर शोर से प्रचार किया गया । नाटक देखने विमल राय भी आए हुए थे । बिमल रॉय ने नजीर को सहयोगी बनने का प्रस्ताव दिया । नजीर ने दो बीघा जमीन का संवाद लिखें और फिल्मों में सक्रिय हो गए । भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद 1950 में मुंबई में आयोजित एक फिल्म समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आए हुए थे । उन्होंने भोजपुरी के संबंध में दो बातें कहीं , जो नजीर हुसैन को लग गई । हालांकि , राजेंद्र बाबू नजीर को पंजाबी समझते थे । यहां पर नजीर हुसैन ने राजेंद्र बाबू को भोजपुरी में फिल्म बनाने का वचन दिया एवं शुभ कामनाएं मांगे । राजेंद्र बाबू भी शुभकामनाएं दिए। जब नजीर हुसैन ने है गंगा मैया तोहे पियारी चढ़ाइबो का पटकथा तैयार किया तो विमल राय से मिले । कहानी अच्छी लगी पर विमल राय फिल्म बनाने को तैयार नहीं हुए ।19 61 मैं एक हिंदी फिल्म गंगा जमुना आई । जिसमें अवधि भाषा का प्रयोग था । जिसके एक गीत नयन लड़ जइहन त मनवा
में कसक होईबे कड़ी , जबरदस्त सफल हुआ ।इस फिल्म में दिलीप कुमार , वैजयंती माला ने अभिनय किया था । इस तरह 10 साल का समय बीत गया । कोई भी निर्माता फिल्म बनाने को तैयार नहीं हुआ ।
विश्वनाथ शाहावादी गिरिडीह के रहने वाले थे । धनबाद में इनका रे सिनेमा हॉल चलता था। राजेंद्र बाबू और विश्वनाथ शाहाबादी दोनों मित्र थे । राजेंद्र बाबू ने विश्वनाथ शाहाबादी को यह बात बताई कि नजीर हुसैन एक भोजपुरी फिल्म बनाना चाहते हैं , तो वे उद्वेलित हो गए और निर्णय लिया कि मुंबई जाकर नजीर हुसैन से अवश्य मिलेंगे । बिना पता लिए ही शाहाबादी 1961 में मुंबई चले आए । मुंबई के चर्चित गेस्ट हाउस प्रीतम होटल में ठहरे । पूर्व में यह जानकारी मिली थी कि फिल्मी दुनिया के लोग इस होटल में ठहरते हैं । होटल के पास ही रूप तारा ,रंजीत और श्री साउंड फिल्म स्टूडियो में गए । लेकिन नजीर हुसैन नहीं मिले । तीन-चार दिनों बाद शाहवादी की मुलाकात नजीर हुसैन से हुई । दोनों में फिल्म निर्माण की सहमति बन गई ।निर्माता बने विश्वनाथ शाहावादी , पटकथा कहानी संवाद लेखन का कार्य नजीर हुसैन के जिम्मे आया ।
हे गंगा मइया तोहे पियारी चढ़ाईबो के लिए कलाकारों का चयन शुरू हो गया । निर्देशक कुंदन कुमार ,अभिनेता असीम कुमार , पद्मा खन्ना का चयन हुआ । संगीत चित्रगुप्त ने तैयार किया । फिल्म के गीत शैलेंद्र ने लिखें । लता मंगेशकर उषा मंगेशकर सुमन कल्याणपुरी मोहम्मद रफी अपनी आवाजें दी। फिल्म का शुभ मुहूर्त 16 फरवरी 1961 को बिहार के शिक्षा मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा जी की पत्नी किशोरी सिन्हा की उपस्थिति में शहीद स्मारक परिसर में हुआ , जिसमें असीम कुमार नजीर हुसैन भी थे । इस फिल्म का फिल्मांकन पटना के मनेर , बनारस के गंगा घाट , गाजीपुर , मुंबई के प्रकाश स्टूडियो और श्रीकांत स्टूडियो में हुआ । 21 फरवरी 1963 को विश्वनाथ शाहवादी पूर्व राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को यह फिल्म समर्पित किए और उसी दिन उद्घाटन भी हुआ । राजेंद्र बाबू बीमार थे , लेकिन फिल्म की एक झलक को देखा , प्रशंसा के एक पत्र भी लिखें । पत्र लिखने के 3 दिन बाद राजेंद्र बाबू का निधन हो गया । फिल्म तो बनकर तैयार हो गई , लेकिन भोजपुरी में होने के कारण इसे कोई खरीदने को तैयार नहीं था। वीणा सिनेमा हॉल के मालिक हीरा प्रसाद ने 22 फरवरी 19 63 को अपने हॉल में रिलीज किये । बीणा हॉल के मैनेजर दिगंबर चौधरी को लगा कि कोई भी दर्शक इसको देखने नहीं आएगा । लेकिन फिल्म लगते ही भारी संख्या में दर्शक देखने को पहुंचने लगे । शो हाउसफुल चलने लगा । सिनेमा हॉल में जितने दर्शकों की क्षमता थी , उससे चार गुना लोग बाहर इंतजार करते थे । फिल्म कुल 22 हफ्ते चली । फिल्म बिहार , कोलकाता सहित कई राज्यों में सिल्वर जुबली मनाई । लोग आंखों से आंसू पूछते हुए बाहर निकलते। फिल्म को अत्यंत सफल होने पर इससे जुड़े लोग वीणा हॉल में आए । साथ ही राजेंद्र बाबू से मिलने का भी कार्यक्रम था । लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था । 28 फरवरी 1963 को हृदय गति रुक जाने से बाबूजी का निधन हो गया । बाबू जी की अंत्येष्टि में सभी कलाकार शामिल हुए । 1 दिन के लिए फिल्म भी रोक दी गई । लोगों में फिल्म देखने का जुनून इस तरह से था कि दूरदराज के लोग बैलगाड़ी से , टमटम से , ट्रेन से आते थे । महिलाएं सोहर गाती थी । टिकट नहीं मिलने पर वही पड़ाव डाल देते थे और अगले दिन फिल्म देख कर ही घर जाते थे । जिन लोगों ने इस फिल्म को देखी , उसकी आंखें नाम हो गई ।
फिल्म की कहानी दलित युवती स्वर्ण युवक की प्रेम कथा पर आधारित थी । जिसमें बेमेल विवाह , दहेज प्रताड़ना ,नशा का सेवन , जातीय समस्याओ आदि का चित्रण बड़े ही मार्मिक तरीके से किया गया था । कहानी में नायिका का विवाह अपने प्रेमी से न होकर एक बूढ़े आदमी से हो जाती है और एक दिन बाद उस बूढे आदमी की मौत हो जाती है । प्रताड़ना से तंग आकर नायिका नदी में छलांग लगा देती है और पहुंची जाती है बनारस के तवायफ खाने में । फिल्म में नजीर हुसैन का किरदार बड़ा ही जबर्दश्त था । साथ ही एक गरीब मजबूर पिता की भूमिका और पुत्री के विवाह के बाद एकाकी जीवन का चरित्र अंदर तक झकझोर देता है । दहेज की चिंता आज भी गरीब मां बाप को है और उस दौर में भी था । नायिका का विवाह जब हो जाता है तो नायक तरप उठता है और नायिका को पाने के लिए दर-दर भटकता है । अंत में दोनों का मिलन हो जाता है । इस तरह सुखद मोर पर इस कहानी का अंत दिखाया गया है । फिल्म के लोकप्रिय गीत ने बहुत ही जबर्दशत अपना प्रभाव छोड़ा ।फिल्म का बजट 1.5 लाख एवं कमाई पांच लाख हुई ‌। ‌नजीर हुसैन की दूसरी फिल्म बलम परदेसिया भी सिल्वर जुबली रही ,जिसका निर्देशन नजीर हुसैन ने स्वयं किया था । इस तरह नजीर हुसैन भोजपुरी फिल्म के भीष्म पितामह बन गए । फिल्म के संगीतकार चित्रगुप्त में आगे चलकर बलम परदेसिया , गंगा किनारे मोरे गांव , धरती मइया के संगीत दिये । जिसे अपार सफलता मिली । विश्वनाथ शाहावादी आगे चलकर सोलह श्रृंगार करे दुल्हनिया , गंगा धाम , गीत गंगा , तुलसी आदि फिल्मों का निर्माण के साथ बांग्ला फिल्मो का निर्माण किया । फिल्म नदिया के पार की अभिनेत्री साधना सिंह जो विश्वनाथ शाहवादी के पुत्र राजकुमार सिंह के साथ विवाह हुआ । इस फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 22 फरवरी 2013 को इस फिल्म को पूरे 50 साल पूरे किए । दैनिक हिंदुस्तान में रामनरेश चौरसिया जी द्वारा इस फिल्म पर एक लेख लिखा गया , जिसका मुख्य अंश इस प्रकार है – पहली भोजपुरी गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ाईब बड़े परदे पर आने के 22 फरवरी को पूरे 50 साल हो जाएंगे , लेकिन आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है । इस फिल्म की योजना 1959-60 में ही बनी थी । किंतु बड़े पर्दे पर 22 फरवरी 1963 को आई थी । इसमें कई बिहारी कलाकारों ने काम किया । वीणा थिएटर के तत्कालीन मैनेजर दिगंबर चौधरी आज भी उस दिन को नहीं भूले हैं । उन्होंने बताया कि पहले तो लगा था कि कोई भोजपुरी मूवी देखने थियेटर में आएगा ही नहीं , किंतु हमारा अनुमान गलत निकला । पहले ही दिन शो हाउसफुल जाने लगी । पूरे 22 हफ्ते चली । फिल्म को मिली शानदार सफलता पर फिल्म के कई कलाकार उनके थिएटर में पहुंचे । राम नरेश जी आगे लिखते हैं कि कई कलाकारों ने बिना पैसे के ही फिल्म में काम किये थे ।(ये लेेेखक का निजी वीचार है)