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अपने अज़ीज़ ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज के साथियों के नाम डॉ.लक्ष्मण यादव का संदेश

सम्मानित साथियों!

आप सबकी बहुत याद आएगी। ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज, मेरे लिए यह एक कॉलेज मात्र नहीं, एक इमोशन है। और इमोशन ख़त्म नहीं हुआ करते। इस कॉलेज ने मुझे बनाया है। मेरे वज़ूद के साथ ये कॉलेज हमेशा साँस लेता रहेगा। पिछले तक़रीबन चौदह साल, जो मेरी ज़िंदगी के सबसे अहम दिन थे, मैंने इन चारदीवारों में गुज़ारे हैं। जाने कितनी यादें हैं, जाने कितने वाक़ये हैं, जो ताउम्र याद रहेंगे। जो न भूलेंगी, वे मेरी कक्षाएँ हैं। स्टाफ़ रूम का शानदार माहौल है। बेइँतहा प्यारे लोग हैं। आप सबकी कमी हमेशा महसूस होती रहेगी। आप सबसे से जो सीखा है, उसे आने वाले कल की बेहतरी में शामिल करूँगा। आप सब मुझमें ज़िंदा रहेंगे।

इस कॉलेज ग्रुप में मेरा शायद यह पहला मैसेज है और निःसंदेह आख़िरी। मैं कॉलेज में जब भी दो चार बार बोला, एडहॉक के मसले पर बोला होगा, डूटा के दायरे में बोला होगा। और तो कभी बोला भी नहीं। क्योंकि उसकी कभी ज़रूरत महसूस न हुई। आप सब तो थे ही न। फिर भी शायद ख़ुद में ही कहीं कोई कमी रह गई होगी, इसलिए नक़ार दिया गया।

अब अलविदा कहने का वक़्त आ गया। चौदह साल पहले आया था, तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ज़िंदगी का सबसे मुश्किल यह लम्हा भी आएगा। आज के बाद मेरी साँसे अधूरी रहेंगी, क्योंकि मेरी कक्षाएँ मेरे पास न होंगी। आज के बाद मुझे कॉलेज से मेल नहीं आया करेंगे। आज के बाद ड्यूटी चार्ट में मेरा नाम न हुआ करेगा। आज के बाद मेरे हिस्से की चाय कोई और पीया करेगा। स्टाफ़ रूम के उस कोने की कुर्सी पर कोई और बैठा करेगा। मेरी कक्षा में कोई और जाया करेगा। मगर उन कक्षाओं के किसी कोने मैं भी शायद थोड़ा सा बचा रहूँगा। कॉलेज रजिस्टर के वे सारे पन्ने बंद कर दिए जाएँगे, जिनमें मेरा नाम पिछले चौदह सालों से साँस लेता था। मुझे इतने प्यारे लोग अब शायद सिखाने को न मिला करेंगे।

फिर भी मुझे फ़ख़्र है ख़ुद पर कि जो मुझे होना था, वही हुआ और जो मुझे कत्तई नहीं होना था, सब कुछ दाव पर रखकर भी वह सब न हुआ। रीढ़ सही सलामत बचाकर लाया। मिर्ज़ा कह गए हैं-

‘घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है।’

मेरा कभी किसी से कोई विवाद न हुआ, कभी किसी को नाराज़ न किया, शायद किसी का कभी अपमान भी न किया। फिर भी कोई ग़लती कभी जाने-अनजाने कर दी हो, तो आप सब से माफ़ी। माफ़ कर देंगे न?

माफ़ी कि इतना सब लिख गया। इमोशन है न, बहता चला गया। माफ़ कर दीजिएगा और पढ़कर भूल जाइएगा। शायद आपके लिए नहीं, ख़ुद के लिए लिख गया।

‘जो बीत गई सो बात गई है
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है।’

अलविदा

डॉ. लक्ष्मण यादव
निष्कासित असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (एडहॉक)
हिंदी विभाग
ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय