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“भारत के रॉबिनहुड, महान क्रांतिकारी, लोकप्रिय जन नायक मामा टंट्या भील: डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”

भारत में जनजातियों की वीरता और बलिदान और भारत निर्माण में उनके अतुलनीय बलिदान को कुटिल और सामंती सोच के इतिहासकारों ने कभी भी जनता के सामने नहीं लाया। जब भारत के ब्राह्मण, सेठ साहूकार और राजपूत मुगलों और अंग्रेजों की शान में कसीदे पढ़ रहे थे तब मध्य भारत में पूरब से पश्चिम तक कोइतूरों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। इसी क्रम में भारत में बरार और मध्य क्षेत्र से लेकर गुजरात और राजस्थान तक भील कोइतूरों का दबदबा और प्रभाव था। जब इस क्षेत्र में वर्ष 1818 में मराठाओ नें अंग्रेजों के समाने हथियार डाल दिये और अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली तब भी भील कोइतूर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे। ऐसे सैकड़ों के संख्या में भील कोइतूर थे जो अपने अपने क्षेत्रों में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे और अपनी संस्कृति और सम्मान को बचाने के लिए लड़ रहे थे उन्ही वीरों में से एक थे टंट्या भील जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए अमर हो गए।

मध्य प्रदेश की धरती को गौरव प्राप्त है महान कोइतूर जननायक टंट्या भील की जन्मस्थली होने का। टंट्या भील का जन्म खंडवा जिले (पूर्वी निमाड) के पंधाना तहसील के छोटे से गाँव बड़ौत अहीर में हुआ था। उनके जन्म को लेकर कई लोगों नें प्रश्न उठाएँ हैं और अलग अलग वर्ष निर्धारित किए हैं। चूंकि उनकी कोई व्यवस्थित शिक्षा दीक्षा नहीं हुई थी और उनका कोई औपचारिक और अधिकारिक रेकॉर्ड नहीं था इसलिए उनकी सही जन्म तिथि का आंकलन करना मुश्किल था। वैसे एक अनुमान के मुताबिक उनका जन्म 1824 से 1827 के बीच का माना जाता है।

एक सामान्य भील कोइतूर परिवार में जन्मे बालक का बचपन भी सामान्य बच्चों जैसा ही था और गरीब भील परिवार की वो सभी मुश्किलें उनके सामने थी जो उस समय अन्य भील बच्चों के सामने होती थीं। बचपन में तीर धनुष चलना, तलवारबाजी करना, गुलेल चलाना, मल्ल युद्ध करना, तैराकी इत्यादि करना बालक टंट्या का शौक था। एक सामान्य बच्चा कब एक महान सेनानी और महानायक बन गया ये कहानी बड़ी रोचक है और हजारों लाखों कोइतूर बच्चों को विषम परिस्थितियों में महान बनने की शिक्षा और प्रेरणा देती है।

भील कोइतूरों का जीवन उस समय अंग्रेज़ और होल्कर मराठाओं के बीच पिस रहा था। मराठा अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर चुके थे और आराम तलब जीवन जीने के लिए अंग्रेजों के अधीन रहकर लगान वसूली और रियासत संभालने का काम कर रहे थे। इस तरह अंग्रेज़ और मराठा दोनों मिलकर गरीब बेबस भील समुदाय के लिए परेशानी का सबब बन गए थे। आए दिन अपने परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और अपनी भील समुदाय पर हो रहे जुल्म और उत्पीड़न से बालक टंट्या भील बहुत दुखी रहने लगे। ये वही दौर था जब बालक टंट्या जवानी की दहलीज पर कदम रख रहे थे। उनसे अपने समुदाय के खिलाफ हो रहे दोहरे जुल्म और अन्याय को देखा न गया और एक सामान्य भील बालक में एक असामान्य कार्य करने की इच्छा बलवती हो गयी। उन्होने अंग्रेजों और होल्कर मराठाओ सहित उन सभी सेठ साहूकारों को सबक सिखाने का निर्णय लिया जिनके कारण भील समुदाय पीड़ा और अन्याय का सामना कर रहा था।

टंट्या भील सबसे महान क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने बारह वर्षों तक ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया और अपने अदम्य साहस से अङ्ग्रेज़ी शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठा लिया। इसी समय भारत के अन्य राज्यों से उरांव, मुंडा, संथाल और गोंड कोइतूरों द्वारा चल रहे आंदोलनों की भी भनक लगी जिससे टंट्या भील को बहुत हिम्मत और बल मिला। उन्हे लगा कि वो अकेले नहीं है पूरा कोइतूर समाज अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा है। उनके करीबी सहयोगियों में महादेव, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे।

अपने साथियों के साथ साथ टंट्या भील आस पास के कोइतूर नौजवानों को भी इकट्ठा करने लगे और अंग्रेजों सहित भारतीय जमींदारों और साहूकारों द्वारा किए जा रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिये। शुरू शुरू में अंग्रेजों और जमींदारों ने सामान्य भील लड़का समझ कर ज्यादा भाव नहीं दिया और टंट्या भील की नेतृत्व क्षमता और वीरता को नज़र अंदाज किया और यही गलती उन्हे बाद में भारी पड़ने लगी। अपने सहृदयता, वीरता, निडरता और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के कारण टंट्या भील जनजातीय इलाकों में एक संकट मोचक के रूप में उभरने लगे और हजारों लाखों कोइतूरों की भावनाओं का प्रतीक बन गए।
राजनीतिक दलों और शिक्षित वर्ग द्वारा ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए चलाये जाने वाले आंदोलन से बहुत पहले ही इस वीर नौजवान क्रांतिकारी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। उनके अदम्य साहस, असाधारण चपलता और बेहतरीन आयोजन कौशल ने उन्हे जनमानस का महानायक बना दिया।

टंट्या भील ब्रिटिश सरकार के सरकारी खजाने को लूटने के साथ साथ उनके चाटुकार रियासतदारों और सेठ साहूकारों का भी खजाना लूटकर गरीबों और जरूरतमंदों में बांट देते थे क्यूंकी उन्हे पता था कि अंग्रेजों के नाम पर भारतीय सेठ साहूकार और राजे महाराजे आम गरीब जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई जबर्दस्ती हड़प कर जाते थे। वास्तव में वे गरीबों और मज़लूमों के मसीहा थे। वे निर्धन और गरीब लोगों की बेटियों की शादी विवाह बड़े धूम धाम से सम्पन्न करवाते थे और कभी भी पैसे की कमी के कारण किसी गरीब की बेटी का विवाह न रुके ऐसा हमेशा प्रयाश करते थे। उन्हें सभी आयु वर्ग के लोगों द्वारा लोकप्रिय रूप से मामा कहा जाता था। “मामा” का यह संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया था कि उन्हे सब लोग आज भी टंट्या मामा कहते हैं और आज भी मध्य प्रदेश और आस पास के भील टंट्या मामा के नाम से ही जानते और पहचानते हैं। लोगों को मदद करने के कारण उनको अपार जन समर्थन मिलने लगा और वे गरीबों के मसीहा के रूप में उभरे।

धीरे धीरे अब ब्रिटिश सरकार उनको नियंत्रित करने लिए संजीदा होने लगी और उन्हे गिरफ्तार करके जेल में भी डाल दिया। उन्होने कई बार ब्रिटिश कानून को डेंगा दिखाया और बड़ी आसानी से जेल को तोड़कर बाहर आ गए। उनकी विशेष छापामार गुरिल्ला युद्ध शैली कमाल की थी । जब उन्हे लगाने लगा कि अब तीर धनुष से काम नहीं चलने वाला है तब उन्होने अंग्रेजों की लूटी हुई बंदूकों से निशाना लगाना सीखा और धीरे धीरे अच्छे बंदूकधारी हो गए। वे पारंपरिक तीरंदाजी में कुशल होने के साथ बंदूक के अच्छे निशानेबाज भी थे और “दाव” या फालिया उनका मुख्य हथियार था।

अपने युवावस्था से ही वे सतपुड़ा के घने जंगलों, घाटियों, बीहड़ों और पहाड़ों में रहते थे और ब्रिटिश सेना और होल्कर राज घराने की सेनाओं के साथ अक्सर उनकी मुठभेड़ होती रहती थी। टंट्या की मदद करने के आरोप में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया था और उनमें से सैकड़ों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया और न जाने कितनों को गोली से उड़ा दिया गया था या फांसी पीआर टांग दिया गया था। फिर भी लोग टंट्या मामा का साथ नहीं छोडते थे। इस बात से अंग्रेज़ काफी परेशान और हताश थे।
टंट्या मामा अपनी एक और बात के लिए मशहूर थे । वे भेष बदलने में माहिर थे और लोग बताते हैं कि वे कई हमशक्ल भी साथ रखते थे और इसी कारण कई बार अंग्रेजों के चंगुल से बच निकलते थे। वे कभी भी एक हमला नहीं करते थे बल्कि चार पाँच हमले और लूट पात एक साथ करते थे इससे अंग्रेज़ अधिकारियों को लोगों द्वारा अलग अलग कई सूचनाएँ मिलती थी और अंग्रेज़ उन सूचनाओं से भ्रमित हो जाते थे और इसी का मौका उठकर वे सतपुड़ा के जंगलों में बच निकलते थे। कई बार वे अंग्रेजों के चंगुल से बच कर नर्मदा नदी में कूदकर गायब हो गए थे। वे अच्छे गोताखोर और तैराक भी थे और नर्मदा नदी को आसानी से पार कर जाते थे। उनका पूरा जीवन संघर्ष में बीता।

उन्हे पुनः गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज़ सेनापति तरह तरह के प्रलोभन और इनाम जनता के सामने रखने लगे। एक बार अंग्रेजों ने उनके परिवार के साथ मिलकर उन्हे पकड़ने का जाल बुना और सफल हुए। टंट्या को उनकी औपचारिक बहन के पति गणपत के विश्वासघात के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें इंदौर में ब्रिटिश रेजीडेंसी क्षेत्र में सेंट्रल इंडिया एजेंसी जेल में रखा गया था। बाद में उन्हें सख्त पुलिस पहरे के तहत जबलपुर ले जाया गया। उन्हें भारी जंजीरों में जकड़ा गया और जबलपुर जेल में रखा गया जहां ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें अमानवीय रूप से प्रताड़ित किया। उस पर सभी प्रकार के अत्याचार किए गए। सेशंस कोर्ट, जबलपुर ने उन्हें 19 अक्टूबर, 1889 को मौत की सजा सुनाई।

मामा टंट्या भील मध्य प्रदेश और भारत से निकालकर पूरी दुनिया में छा गए जब उनकी गिरफ्तारी की खबर दुनिया के सबसे प्रमुख अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी और उन्हे भारत का रोबिनहुड़ कहा। (न्यूयॉर्क टाइम्स 10 नवंबर , 1889 का अंक)

आज के ही दिन यानि 4 दिसंबर 1889 को अंग्रेजों ने उन्हे फांसी दे दिया और उनकी लाश को भी जनता और उनके परिवार को न सौंप कर इंदौर के पास खंडवा रेल मार्ग पर पतालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया गया था। जिस स्थान पर उनके शव को अंग्रेजों ने फेंका था वहाँ आज भी भील समाज की रस्म के अनुसार उनका लकड़ी का पुतला लगाया गया है और उनका मंदिर बनाया गया है। आज भी हजारों लोग उस स्थान को अपना देव स्थान मानते हैं और वहाँ दर्शन के लिए जाते हैं। भील कोइतूरों में इस स्थान का बहुत ज्यादा महत्त्व है। आज भी सभी ट्रेन चालक टंट्या मामा के सम्मान के रूप में कुछ देर के लिए ट्रेन को रोक देते हैं और ट्रेन का हार्न बाजा कर उन्हे सम्मान देते हैं ।

आज भी निमाड़, मालवा, धार-झाबुआ, बैतूल, होशंगाबाद, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के जनजातीय इलाकों में टंट्या मामा को देवता की तरह पूजा जाता है और हर वर्ष उनकी याद में मेले का आयोजन होता है। आज टंट्या मामा के जीवन और कर्मों के बारे में बहुत सारी कहानियां, किस्से, और गीत निमाड़ क्षेत्र में सुने सुनाये और गाये जाते हैं। मालवी, मराठी, गुजराती और राजस्थानी में भी उनपर बहुत सारी साहित्यिक रचनाएँ और पुस्तकें उपलब्ध हैं।

बहुत सारे विदेशी लेखक और चापलूस सामंतवादी लेखक उन्हे लुटेरा, डाकू और अपराधी की संज्ञा से नवाजे हैं जो पूर्णतया गलत और भ्रामक है । उन्होने कभी भी अंग्रेजों और देशी राजाओं की गुलामी नहीं स्वीकारी और पूरे जीवन आम लोगों के दुख और तकलीफ़ों के लिए संघर्ष करते रहे। अपने समाज, जाति और देश पर बलिदान हो जाने वाले ऐसे कोइतूर सपूत को सदियों तक ऐसे ही आदर और सम्मान मिलता रहेगा और वे हमेशा जनमानस के महानायक बने रहेंगे।

आज भी जनजातीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार भी इस महान कोइतूरयोद्धा के नाम पर “जननायक टंट्या भील पुरस्कार” देती है जिसमें खेल और शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर उपलब्धि के लिए एक लाख रुपये का नकद पुरस्कार राशि और प्रशस्ति पत्र दिया जाता है।
टंट्या मामा के सम्मान में मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा 26 जनवरी 2009 को नई दिल्ली में ” भारतीय रॉबिन हुड ” नाम की झांकी का राजपथ पर प्रदर्शित कि गयी थी जिसे बहुत सराहा गया था।
टंट्या भील पर आधारित कर हिन्दी फिल्में और नाटक आम जनता के सामने आ चुके हैं जिसमें से 1988 में आई “दो वक्त कि रोटी” और वर्ष 2012 में “टंट्या भील” नामक फिल्में काफी लोकप्रिय हुई। टंट्या मामा पर अधिक जानकारी के लिए आदिवासी एकता परिषद द्वारा प्रकाशित “शेरे निमाड टंट्या भील” और कुंज पब्लिकेशन द्वारा “द भील किल्स” का अध्ययन किया जा सकता है।

टंट्या मामा सच्चे देश प्रेमी, महान योद्धा, समर्पित देश भक्त और महान क्रांतिकारी थे जिंहोने भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को अमर बना दिया और पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की आग को हवा दिया। आज ऐसे महान कोइतूर योद्धा को उनके बलिदान दिवस पर शत शत नमन और कोटि कोटि सेवा जोहार !

लेखक : डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”
भोपाल