सेठ साहूकारों के चुंगल में फंसे लोगों की दास्तां है “the last ebb”
छपरा(सारण)आज़ादी के 73 वर्ष गुज़र जाने के बावजूद आज भी देश लाखों ग़रीब, लाचार व बेसहारा लोग सेठ साहूकारों के चंगुल से नहीं निकल पाए है। सबसे आश्चर्य जनक बात यह कि ग्रामीण क्षेत्रों की बात कौन करें शहरी क्षेत्रों के साधारण परिवारों को साहूकारों से मुक्ति नहीं मिली है। इसी तरह के मुद्दों को जीवंत करने का बीड़ा देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी अलग पहचान बनाने वालें व अहिंसा के पुजारी मोहनदास करमचंद गांधी के नाम पर स्थापित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के नाट्य संकाय के छात्रों ने मिलकर एक शार्ट फ़िल्म का निर्माण किया हैं।
महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्ववर्ती छात्र सह युवा फ़िल्मकार राकेश विक्रम सिंह ने दुरभाष पर बताया कि मैंने बचपन से ही सूदखोरी की कहानियां सुना करता था कि किस तरह सेठ साहूकारों के चंगुल में गांव की भोली भाली अनपढ़ जनता सूदखोरी के जाल में फंसे हुए है साथ ही पढ़ाई के समय से ही एक फ़िल्म निर्माण करने की सोंच रखी थी जिसको मैंने अपनी फ़िल्म “the last ebb” में जीवंत किया है।
विक्रम का कहना हैं कि देश की आज़ादी के बाद न जानें कितनी योजनाएं ग्रामीण जनता के लिए आई होंगी लेकिन इसकी सच्चाई क्या है आप सभी को पता होगा। देश की गरीबी को मिटाने के लिए योजनाएं तो लाई जाती हैं लेकिन ग़रीब तो गरीब ही रह जाते है कल्याण होता हैं तो केवल अमीरों का क्योंकि धरातल पर आते-आते गरीबों की हकमारी हो जाती हैं।
वैश्विक महामारी कोरोना में भी देखेंगे तो पता चलता है कि आज भी देश की करोड़ों जनता रोटी, कपड़ा और मकान के लिए लड़ाई लड़नें को विवश हो रहे हैं। आज भी देश की एक बड़ी आबादी मूलभूत सुविधाओं से वंचित होते हुए भी अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए दिन रात एक कर रही हैं। वहीं दूसरी तरफ़ देश में बेतहाशा बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। वहीं भ्रष्टाचार भी कम होने का नाम नही ले रहा है जिस कारण आज भी लाचार व मध्यमवर्गीय परिवार से बैंकों से या सेठ साहूकारों से सूद पर मोटी रक़म लेने के लिए अपनी जमीन/जेवर गिरवी रख रहा हैं या फ़िर उसे कौड़ी के भाव बेंच रहा हैं।
आम आदमी की समस्याओं को केंद्रित करते हुए युवा फ़िल्मकार राकेश विक्रम सिंह ने अपनी फ़िल्म “the last ebb” में इसे जीवंत किया है, फ़िल्म में सूदखोरों के चंगुल में फँसे उस राजमंगल की कहानी है जिसके जीवन में बढ़ते ब्याज़ की किस्तों नें अमंगल कर दिया है।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा से नाट्य में स्नातकोत्तर की डिग्री लेने वाले विक्रम वर्तमान समय में फ़िल्म, धारावाहिक और वेबसीरिज बना रहे हैं वैसे मूलरूप से उत्तर प्रदेश के बलिया जिला मुख्यालय के काशीपुर शहर स्थित नई बस्ती मुहल्ला निवासी विक्रम नें ज़िले सहित आसपास के क्षेत्रों में अपने स्तर से रंगमंच को काफी समृद्ध किया है वह लम्बे समय तक ज़िले की नाट्य संस्था संकल्प से जुड़े रहें हैं।
The last ebb का मतलब आख़िरी बात जैसे सीरीज बनाये जाने के उद्देश्य के संबंध में मुख्य भूमिका निभाने वाली छत्तीसगढ़ के बिलासपुर की रहने वाली औऱ इस सीरीज में जयमंगल की पत्नी के रूप को छायांकित करने वाली दीप्ति ओगरे ने ख़ास बातचीत में बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीबों की दयनीय स्थिति काफ़ी ख़राब हो गई हैं। क्योंकि एक तो ग़रीबी और दूसरे सेठ साहूकारों के कर्ज से दबे हुए लोगों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही हैं। जब कोई कर्ज के बोझ तले लाचार के सामने एक ही बात सामने आती हैं वह आत्महत्या।इसी सच्चाई को दिखाने का प्रयास किया गया हैं।
The last ebb सप्तक फ़िल्म्स को यूट्यूब पर उपलब्ध कराया गया हैं। जिसे दर्शकों का काफ़ी प्यार व स्नेह मिल रहा हैं, आख़िरी बात फ़िल्म को बनानें के लिए वर्धा के आसपास का ही लोकेशन लिया गया हैं और सबसे खास बात यह हैं कि वर्धा से पढ़ाई करने वाले पूर्ववर्ती छात्रों के समूह द्वारा ही इसे मूर्त रूप दिया गया हैं, इसके निर्देशक राकेश विक्रम सिंह हैं जबकिं लेखक धीरज कुमार हैं तो वहीं निर्माता मंजीत सिंह व प्रवीण पाण्डेय हैं।
👍👍👍 आज भी लगभग हर गांव में ये खून चूसने वाले सूदखोर मिल जाएंगे और इनके चंगुल में फंसे 20 से 25 गरीब मजदूर इनकी सूद की चक्की में पिसते नज़र आएंगे। शार्ट फ़िल्म बनानेवाले को चाहिए कि कुछ वास्तविक किरदारों को भी जगह देंगे तो ये प्रयास और भी सार्थक होगा। लॉक डाउन के बाद आपको ऐसे लोग सैकड़ों की संख्या में मिल जाएंगे।